SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हृदय में सदा विराजमान) रत्यादि स्थायी भावों को रसास्वादन में परिणत किया करते है तथा जिन्हे स्थायीभावो में समुद्र में बुदबुद की भाँति उन्मज्जित किं वा निमज्जित होते हुए देखा जाया करता है। 142 व्यभिचारीभाव की अभिनव भारती- सम्मत व्याख्या आचार्य हेमचन्द्र के इन शब्दो में है 'भावयन्ति चित्तवृत्तयः हेतुप्रश्नमाहुः । ' १ हेमचन्द्र का काव्यानुशासन २/१८ . उत्साहशक्तिमानित्यत्र तात्पर्य यह है कि रत्यादि अथवा निर्वेदादि चित्तवृत्तियो को ही भाव कहा जाता हैं, चित्तवृत्तियों को 'भाव' इसलिए कहा जाता है क्यों कि कवि कला किंवा नाट्यकला की वर्णना और अङ्कन शक्ति इन्हे 'आस्वाद्य बना दिया करती हैं। लोकजीवन में ये चित्तवृत्तियाँ रस अथवा आस्वादरूप में अनुभव का विषय नहीं बनती है। यह कलाजीवन की महिमा है जिसके कारण ये रस रूप से प्रतीत हैं। इन चित्तवृत्तियों को इस दृष्टि से भी 'भाव' कहते है क्योकि काव्य-नाट्य के क्षेत्र में सामाजिकों का हृदय इनसे व्याप्त हो जाता है। अब इन चित्तवृत्तियो मे स्थिर और अस्थिर रूप की द्विविध चित्तवृत्तियाँ हैं। स्थिर चित्तवृत्तियाँ जैसे कि रति आदि ऐसी हैं जो प्राणिमात्र के हृदय में, जन्म से ही संस्कार रूप में विराजमान रहा करती हैं। 'अब व्यभिचारीभाव' उन अस्थिर चित्तवृत्तियों का, कला-जगत में प्रसिद्ध, नाम है जो स्थायी चित्तवृत्ति सूत्र मे पिरोयी प्रतीत हुआ करती हैं। कभी ये चित्तवृत्तियाँ उदित होती है, कभी अस्त होती है। अनन्तर वैचित्र्य के साथ इनमे अविर्भाव - तिरोभाव की आँखमिचौनी चला करती हैं। इनके कारण स्थायी चित्तवृत्तियाँ चित्र-विचित्र लगा करती हैं। स्थायी चित्तवृत्तियों में डूबना - उतराना इनकी विशेषता है। इसीलिए इन्हें व्यभिचारीभाव कहा गया है। 'ग्लानि' व्यभिचारी भाव हैं कोई
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy