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________________ आचार्य विश्वनाथ के अनुसार ये निम्नोदिष्ट पदार्थ उद्दीपन विभाव वर्ग नायक-नायिका आदि की विविध आङ्गिक चेष्टाये, समुचित देश, उपयुक्त समय आदि । में आते है - 136 निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि रस को उत्पन्न करने में विभाव का बहुत महत्त्वपूर्णस्थान है। साधारणतया मनुष्य में जो रति आदि भाव होते हैं उसे विभाव साधारणीकरण द्वारा रसास्वादन कराता है। इसकी अभिव्यक्ति वाचिक, आङ्गिक आदि अभिनयो द्वारा होती है। अर्थात् जिसके द्वारा सहृदयो के रति भाव जागृत होते है वही हेतु विभाव होता है। उदाहरण के लिए जैसे नायक के मन मे जो रति आदि भाव है वह नायिका को देखकर उद्बुद्ध रहा है अतः यहाँ नायिका को विभाव कहा जायेगा। इस प्रकार आलम्बन जो कि इसका पहला भेद वर्णित है इसी का आश्रय लेकर जो सहृदयजनों के हृदय में रति भाव वासना रूप में होता है वह अविर्भूत होता हैं तथा उद्दीपन विभाव द्वारा वह और भी प्रदीप्त होता है । अनुभाव रस निष्पत्ति में स्थायी भाव रस के अभ्यन्तर कारण हैं। इसी प्रकार आलम्बन उद्दीपन विभाव उसके बाह्य कारण है। किन्तु अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव उस अभ्यन्तर रस निष्पत्ति या रसानुभूति से उत्पन्न शारीरिक तथा मानसिक व्यापार हैं। नाट्यशास्त्र ( ७/४) में कहा गया है कि 'वाचिक तथा आंगिक अभिनय के द्वारा रत्यादि स्थायी भाव की अभ्यन्तर अनुभूति का जो बाह्य रूप में अनुभव कराता है, उसे अनुभाव कहते हैं वागङ्गाभिनयेनेह यतस्त्वर्थोऽनुभाव्यते । - शाखाङ्गोपाङ्गसंयुक्तस्त्वनुभावस्ततः स्मृतः । । आचार्य भरत ने अनुभाव की परिभाषा करते हुए (नाट्यशास्त्र ७/५) लिखा है कि 'जिनके द्वारा वाचिक आंगिक और सात्विक अभिनय अनुभावित होते हैं, उन्हें अनुभाव कहते हैं (अनुभाव्यतेऽनेन वागङ्गसत्त्वकृतोऽभिनय
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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