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________________ रस शब्द से भी कहा है और अपने ग्रन्थ का रसगंगाधर नाम रखने का भी पण्डितराज का यही आशय है। अतः शान्त रस का अर्थ है परम शिव । 117 “ममैवांशो जीवलोके” इस गीतोक्ति के अनुसार जीव परमात्माका अंश हैं। अब सिद्ध करते है कि शान्त सबका उद्गमस्थल हैं। भरत ने इसी भाव को दृष्टि मे रखकर लिखा है - न यत्र दुःखं न सुखं न द्वेषो नापि मत्सरः । समः सर्वेषु भावेषु स शान्तः कथितो रसः । । भावाः विकारा रत्याद्याः शान्तस्तु प्रकृतिर्मतः । विकारः प्रकृतेर्जातः पुनस्तत्रैव लीयते । । स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शान्ताद्भावः प्रवर्तते । । पुनर्निमित्तापाये च शान्त एवोपलीयते । एवं नवरसा दृष्टा नाट्यज्ञैर्लक्षणान्विताः । । अर्थात् जहाँ न दुःख है न सुख है, न द्वेष है और न मत्सर है अर्थात् दूसरो की अच्छाई में बुराई निकालने की या देखने की भावना वहीं है और जो सब भावो मे समान है वह प्रसिद्ध शान्त रस है । ' नवो रसों के स्थायी भाव को जानने से पहले स्थायी भाव किसे कहते हैं? इस पर विचार करना आवश्यक है ' स्थायी भाव की परिभाषा करते हुए आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में लिखा है कि 'स्थायीभाव उस भाव को कहते हैं, जो न तो किसी अनुकूल भाव से तिरोहित हुआ करता है और न १ नाट्यशास्त्र भरतमुनि प्रथमभागात्मकम् पू. सं. ६८ सम्पा. साहित्याचार्य श्री मधुसदनशास्त्री एम. ए.
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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