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________________ लगाने से गौरवर्ण वाले और शुभ्र पवित्र वेष वाले एक तरफ भोगी के रूप मे दिखलाई देते है तो दूसरी तरफ पदमासन पर बैठे नासिका पर दृष्टि लगाये योगी के रूप मे दिखलाई देते है। श्रेयः सारागममुपयमाघङ्गमग्यासन्स्थं....... योगिनंवा जै० ३/३८ उनके उस रूप का दर्शन करते समय उसमे मोहसमुद्र उमड पडता है, उस समुद्र की तरङ्ग मालाओ से चञ्चलचित्त वाली जडी भूत होकर क्षण भर के लिए जडी भूत हो जाती है वह कौन है श्री नेमि कौन है वह क्या कर रही है इत्यादि कुछ भी जान नहीं पाती हैं। चेतनता आने पर वह आगे विचार करती हुई मेघ से कहती है कि मेघ कहाँ तो त्रिभुवन पति कहाँ तुच्छ जीव मैं फिर भी श्रीनेमि नाथ विवाह हेतु मेरे द्वार तक आ पहुँचे। पर दक्षिण नेत्र ने फडककर मेरे भाग्य भाव को बताते हुए मेरे काम से युक्त मनोरथ रूपी कमल समूहो को संकुचित बना दिया है, अर्थात् इनसे विवाह होगा या नहीं ऐसी आशंका मन मे अनायास ही उत्पन्न हो गई। इस प्रकार राजीमती में अनेक प्रकार के अन्तर्द्वन्द्व उठते है। राजीमती मनोवैज्ञानिक भी है। उसके मनोवैज्ञानिकता का परिचय प्रथम मेघ दर्शन से मिलता है। राजीमती ने मेघ और विरहिणी स्त्रियों के क्रियाकलापो को अत्यन्त मनोवैज्ञानिक ढंग से व्यक्त किया है नीलेनीले शितिलपनयन् वर्षयत्यश्रुवर्णन् गर्जत्यस्मिन् पटु कटु रटन् विद्ययत्यौण्यमिर्यन् । वर्षास्वेवं प्रभवति शुचे विप्रलब्धोऽम्बुवाहे वामावर्गः प्रकृतिकुहनः स्पर्धतेऽनेन युक्तम् ।।' जैनमेघदूतम् १/६
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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