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Darsana moksa-pana prathapaka svaru-pa-nirupana (1) Ke amshe jiyade puvvam? (What are the parts that are destroyed first?) (2) Kim tthidiyani kampani? (What are the karmas that are destroyed?) (3) Darsana-moha-ksapana-karana-jiva kisa-kisa sthiti-anubhaga-visista kona-konase karmanam apavartanam karake kisa sthanaka prapnoti, avam avasista karma kisa sthiti-anubhagaka prapnuvanti? (The jiva who destroys darsana-moha, by destroying which specific karmas and attaining which specific state and anubhaga, and which remaining karmas attain which state and anubhaga?) (4) Visesartha - ... (Detailed explanation)
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________________ बा० ११४ ] दर्शन मोक्षपणा प्रस्थापक स्वरूप-निरूपण के अंसे झीयदे पुव्वं ० ३ । १६. किं ठिदियाणि कम्पाणि०४ । करता है ? · (३) दर्शनमोहका क्षपण करनेवाला जीव किस-किस स्थिति- अनुभागविशिष्ट कौन-कौनसे कर्मोंका अपवर्तन करके किस स्थानको प्राप्त करता है और अवशिष्ट कर्म किस स्थिति और अनुभागको प्राप्त होते हैं ? (४) " ॥११-१६॥ विशेषार्थ - यद्यपि ये चारो सूत्र -गाथाएँ पहले दर्शनमोहकी उपशमनाका वर्णन करते हुए कही गई हैं, तथापि ये चारो ही गाथाऍ साधारणरूपसे दर्शनमोहकी क्षपणा, तथा चारित्रमोहकी उपशमना और क्षपणाके समय भी व्याख्यान करने योग्य हैं, ऐसा चूर्णिकारका मत है । अतएव यहॉपर संक्षेपसे प्रकरण के अनुसार उनके अर्थका व्याख्यान किया जाता है - दर्शनमोहके क्षपण करनेवाले जीवका परिणाम अन्तर्मुहूर्त पूर्व से ही विशुद्ध होता हुआ आरहा है । वह चारों मनोयोगोमेसे किसी एक मनोयोगसे, चारो वचनयोगों में से किसी एक वचनयोगसे और औदारिककाययोगसे युक्त होता है । चारो कपायोमेंसे किसी एक हीयमान कषाय से युक्त होता है । उपयोगकी अपेक्षा दो मत हैं - एक मतकी अपेक्षा नियमसे साकारोपयोगी ही होता है । दूसरे मतकी अपेक्षा मतिज्ञान या श्रुतज्ञानसे और चक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शनसे उपयुक्त होता है । लेश्याकी अपेक्षा तेज, पद्म और शुक्ल, इन तीनोंमें से किसी एक वर्धमान लेश्यासे परिणत होना चाहिए । वेदकी अपेक्षा तीनो वेदोंमेंसे किसी एक वे से युक्त होता है । इस प्रकार प्रथम गाथाकी विभाषा समाप्त हुई । दर्शनमोहकी क्षपणा के सम्मुख हुए जीवके कौन-कौन कर्म पूर्वबद्ध हैं, इस पदकी विभाषा करते हुए प्रकृतिसत्त्व, स्थितिसत्त्व, अनुभागसत्त्व और प्रदेशसत्त्वका अनुमार्गण करना चाहिए । इसमें से प्रकृतिसत्त्व उपशामकके समान ही है, केवल विशेषता यह है कि दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले के अनन्तानुबन्धी-चतुष्कका सत्त्व नहीं होता है । सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वका नियमसे सत्त्व होता है । भुज्यमान मनुष्य के साथ परभव-सम्बन्धी चारो ही आयुकमोंका सत्त्व भजनीय है । नामकर्मकी अपेक्षा उपशामकके समान ही सत्त्व जानना चाहिए। हॉ, तीर्थंकर और आहारकद्विक स्यात् संभव हैं । इसी प्रकार स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षा सर्व प्रकृतियोका सत्त्व उपशामकके समान ही जानना चाहिए । केवल इतनी विशेषता है कि उपशामकके स्थितिसत्त्वसे क्षपकका स्थितिसत्त्व असंख्यात गुणित हीन होता है और उपशामकके अनुभागसत्त्वसे क्षपकका अनुभाग सत्त्व अनन्तगुणित हीन होता है । 'के वा अंसे णिबंधदि' इस दूसरे चरण की व्याख्या करते समय प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका अनुमार्गण करना चाहिए । यह दूसरी गाथाकी विभाषा है | दर्शनमोहकी क्षपणासे पूर्व बन्ध अथवा उदयकी अपेक्षा कौन कौनसे कमांश क्षीण होते हैं, इसका निर्णय बंधने और उदयमें आनेवाली प्रकृतियों की अपेक्षा करना चाहिए । दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले जीवके अन्तरकरण नही होता है किन्तु दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोका आगे जाकर के क्षय होगा । यह तीसरी गाथाकी विभाषा है | दर्शनमोहका क्षपण करनेवाला जीव किस I ६४३
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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