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Gatha 58] Anubhaga-sankrama-bhujākāra - Antara-nirūpaṇa 329. Jahaṇṇukeṇa eyasamayaṃ. 330. Avaṭṭhida-saṃkāmao kevaciraṃ kālādo hoi? 331. Jahaṇeṇa antomuttaṃ. 332. Ukkaṣṣeṇa ve chāvaṭṭhisāgarovamāṇi sādireyāṇi. 333. Sesāṇaṃ kammāṇaṃ bhujagāraṃ jahaṇeṇa eyasamao. 334. Ukkaṣṣeṇa antomuhuttaṃ. 335. Appayara-saṃkāmao kevaciraṃ kālādo hoi? 336. Jahaṇṇukkaṣṣeṇa eyasamao. 337. Ṇavari purisavedassa ukkaṣṣeṇa do āvaliyāo samūṇāo. 338. Caduhaṃ saṃjaṇāṇamukkaṣṣeṇa antomuhuttaṃ. 339. Avaṭṭhidaṃ jahaṇṇeṇa eyasamao. 340. Ukkaṣṣeṇa tevaddvisāgarovamadadaṃ sādireyaṃ. 341. Avattavvaṃ jahaṇṇukkaṣṣeṇa eyasamao. 342. Etto eyajīveṇa antaraṃ. 343. Micchattassa bhujagāra-saṃkāmayantaraṃ kevaciraṃ kālādo hoi? 344. Jahaṇṇeṇa eyasamao. 345. Ukkaṣṣeṇa tevattisāgarovamadadaṃ samādhānaṃ.
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________________ गा० ५८ ] अनुभागसंक्रम-भुजाकार - अन्तर-निरूपण ३७७ ३२९. जहण्णुकस्सेण एयसमयं । ३३०. अवट्टिदसंकामओ केवचिर कालादो होह ? ३३१. जहणेण अंतोमुत्तं । ३३२. उक्कस्सेण वे छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि' | ३३३ . सेसाणं कम्माणं भुजगारं जहणेण एयसमओ । ३३४. उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ३३५. अप्पयरसंकामओ केवचिरं कालादो होइ ? ३३६. जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । ३३७, णवरि पुरिसवेदस्स उक्कस्सेण दो आवलियाओ समऊणाओ । ३३८. चदुहं संजणाणमुकस्सेण अंतोमुहत्तं । ३३९. अवट्टिदं जहण्णेण एयसमओ । ३४०. उक्कस्सेण तेवद्विसागरोवमसदं सादिरेयं । ३४१. अवत्तव्यं जहण्णुक्कस्सेण एयसमओ । ३४२. एत्तो एयजीवेण अंतरं । ३४३ मिच्छत्तस्स भुजगार संकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ३४४. जहणणेण एयसमओ । ३४५. उक्कस्सेण तेवट्टिसागरोवमसद समाधान - जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयमात्र है || ३२९ ॥ शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थित संक्रमणका कितना काल है ? ॥ ३३० ॥ समाधान- जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ अधिक एकसौ बत्तीस सागरोपम है ।।३३१-३३२॥ 0 चूर्णिसू० - शेष सोलह कषाय और नव नोकषाय इन पच्चीस कर्मोंके भुजाकार संक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है ।।३३३-३३४॥ शंका - उक्त पच्चीस कर्मों के अल्पतर-संक्रमणका कितना काल है ? || ३३५ ॥ समाधान - जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समयमात्र है । विशेषता केवल यह है कि पुरुषवेदके अल्पतर-संक्रमणका उत्कृष्टकाल एक समय कम दो आवली है । चारो संज्वलनोके अल्पतर-संक्रमणका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । पच्चीस कपायोके अवस्थित-संक्रमणका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल साधिक एक सौ तिरेसठ सागरोपम है । पच्चीस कपायोके अवक्तव्यसंक्रमणका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है ॥ ३३६-३४१॥ चूर्णि सू० [0- अब इससे आगे एक जीवकी अपेक्षा भुजाकारादि संक्रामकोका अन्तर कहते हैं ॥३४२॥ शंका-मिथ्यात्वके भुजाकार - संक्रमणका अन्तरकाल कितना है ? ॥३४३॥ समाधान - जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सातिरेक एक सौ तिरेसठ सागरोपम है ।। ३४४ ३४५॥ १ सम्मत्तस्सेव सादिरेयवेछावट्टिसागरोवममेत्तावट्ठिदुक्कस्सकालसिद्धीए पडिबधाभावादो | जयध० २ अनंतगुणवदिकालस्स तप्यमाणत्तोवएसादो । जयध० ३ कुदो, पुरिसवेदोदयखवयस्स चरिमसम यसवेदप्प हुडि सययूणदोआवलियमेत्तकाल पुरिसवेदाणुभाग पडसमयमणतगुणहीणकमेण सकमदसणादो । जयध० ४ कुदो; खवयसेढीए किट्टीए वेदयपढमसमयप्पहुडि चदुसजलणाणुभागस्स अणुसमयो वट्टणाघाददसणादो । जयध ५ त जहा - भुजगारसकामओ एयसमयमवट्ठिदसंकमेणतरिय पुणो वि विदियसमए भुजगारसंकामओ जादो । जयध० ४८
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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