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1. Anupurvi-sankrama (sequential transformation) 2. Anānupurvi-sankrama (non-sequential transformation) 3. Kṣīṇamakṣīṇa-sankrama (transformation due to the exhaustion or non-exhaustion of darsana-mohaniya karma) 4. Upasama-sankrama (transformation due to the subsidence of cāritra-mohanīya karma) 5. Kṣapaka-sankrama (transformation due to the destruction of cāritra-mohanīya karma) 6. Mārganopāya (means or methods for these transformations)
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________________ गा० ३९ ) सत्वस्थानों में संक्रमस्थान-निरूपण २७१ अणुधुव्वमणणुपुव्वं झीणमझीणं च दंसणे मोहे । उवसामगे च खवगे च संकमे मरगणोवाया ॥३९॥ इस प्रकार मोहकर्मके संक्रमस्थानोके प्रतिग्रहस्थान बतलाकर अब श्रीगुणधराचार्य उनके अनुमार्गणके उपायभूत अर्थपदको कहते है प्रकृतिस्थानसंक्रममें आनुपूर्वी-संक्रम, अनानुपूर्वी-संक्रम, दर्शनमोहके क्षयनिमित्तक-संक्रम, दर्शनमोहके अक्षय-निमित्तक संक्रम, चारित्रमोहके उपशामनानिमित्तक-संक्रय और चारित्रमोहनीयके क्षपणा-निमित्तक संक्रम ये छह संक्रमस्थानोंके अनुमार्गणके उपाय जानना चाहिए ॥३९॥ विशेषार्थ-इस गाथाके द्वारा पूर्वोक्त संक्रमस्थानो और प्रतिग्रहस्थानोकी उत्पत्ति सिद्ध करनेके लिए अन्वेषणके छह उपाय बतलाए गये है । उनमेसे आनुपूर्वीसंक्रम-विषयक संक्रमस्थानोकी गवेपणा करनेपर चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके २२, २१, २०, १४, १३, ११, १०, ८, ७, ५, ४ और २ प्रकृतिक बारह संक्रमस्थान पाये जाते है । इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके २०, १९, १८, १२, ११, ९, ८, ६, ५, ३, २ और १ प्रकृतिक बारह संक्रमस्थान पाये जाते है । क्षपकके १२, ११, १०, ४, ३, २ और १ प्रकृतिक सात संक्रमस्थान पाये जाते है । अनानुपूर्वी-विषयक संक्रमस्थानोकी गवेषणा करनेपर उनके २७, २६, २५, २३, २२ और २१ प्रकृतिक छह संक्रमस्थान पाये जाते है । दर्शनमोहके क्षय-निमित्तक संक्रमकी अपेक्षा २१, २०, १९, १८, १२, ११, ९, ८, ६, ५, ३,२ और १ प्रकृतिक तेरह संक्रमस्थान पाये जाते हैं । तथा इसी इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके क्षपकश्रेणीमे संभव संक्रमस्थान भी पाये जाते है । दर्शनमोहके अक्षय-निमित्तक संक्रमकी अपेक्षा २७,२६,२५,२३,२२ और २१ प्रकृतिक छह संक्रमस्थान पाये जाते हैं। तथा चौबीस प्रकृतियोकी सत्तावाले जीवके आनुपूर्वीसंक्रमकी अपेक्षा संभव संक्रमस्थानोका भी यहॉपर कथन करना चाहिए । चारित्रमोहकी उपशामना और क्षपणा-निमित्तक संक्रमकी अपेक्षा चौबीस और इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामक और क्षपकके क्रमशः तेईस और इक्कीस-प्रकृतिक संक्रमस्थानको आदि लेकर यथासंभव शेप संक्रमस्थान पाये जाते है । उपशमश्रेणीसे उतरनेकी अपेक्षा चौवीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके ४, ८, ११, १४, २१, २२ और २३ प्रकृतिक सात संक्रमस्थान पाये जाते है । तथा इक्कीस प्रकृतियोकी सत्तावाले उपशामकके उपशमश्रेणीसे उतरनेकी अपेक्षा ३, ६, ९, १२, १९, २० और २१ प्रकृतिक सात संक्रमस्थान पाये जाते है। इन उपर्युक्त संक्रमस्थानोके प्रतिग्रहस्थानोका निरूपण पहले कहे गये प्रकारसे कर लेना चाहिए । १ अणुपुब्बि अणाणुपुत्वी झीणमझीणे य दिट्ठिमोहम्मि । उवसामगे य खवगे य सकमे मग्गणोवाया ॥ २२ ॥ कम्मप० सं०
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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