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Jain Terms Preserved: 1. Etō jhīṇamajhīṇaṃ ti padassa vihāsā kāyavvā. 2. Taṃ jahā 3. Atthi ōkaḍḍaṇādō jhīṇaṭṭhidiyaṃ, ukaḍḍaṇādō jhīṇaṭṭhidiyaṃ, saṃkamaṇādō jhīṇaṭṭhidiyaṃ, udayādō jhīṇaṭṭhidi. Khīṇākhīṇādhikāra The explanation of the term 'jhīṇamajhīṇaṃ' in the fourth mūlagāthā is as follows: 1. The karmic pradeśas (space-points) that are reduced in duration by apakārṣaṇa (diminution) are called khīṇaṭṭhidika (reduced in duration). 2. The karmic pradeśas that are increased in duration by utkārṣaṇa (augmentation) are called khīṇaṭṭhidika. 3. The karmic pradeśas that are transformed from one nature to another by saṃkramaṇa (transformation) are called khīṇaṭṭhidika. 4. The karmic pradeśas that are destroyed by udaya (manifestation) are called khīṇaṭṭhidika.
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________________ झीणाझीणाहियारो १. एतो झीणमझीणं ति पदस्स विहासा कायव्वा । २. तं जहा ३. अस्थि ओकणादो झीणट्ठिदियं, उकडणादो झीणट्ठिदियं, संकमणादो झीणडिदियं, उदयादो झट्ठिदि । क्षीणाक्षीणाधिकार चूर्णिसू० - अब इससे आगे चौथी मूलगाथा के 'झीणमझीणं' इस पकी विभापा करना चाहिए | वह इस प्रकार है: - कर्मप्रदेश अपकर्षणसे क्षीणस्थितिक है, उत्कर्पणसे क्षीणस्थितिक है, संक्रमणसे क्षीणस्थितिक हैं और उदयसे क्षीणस्थितिक है ॥१-३॥ विशेषार्थ- परिणामविशेषसे कर्म - प्रदेश की अधिक स्थितिके हस्व या कम करनेको अपकर्पण कहते है । कर्मप्रदेशो की लघु स्थिति के परिणामविशेपसे बढ़ानेको उत्कर्पण कहते है । एक प्रकृति के प्रदेशको अन्य प्रकृतिरूप परिणमानेको संक्रमण कहते हैं । कर्मों के यथासमय फल- प्रदान करनेको उदय कहते है । जिस स्थितिमे स्थित कर्म-प्रदेशाम अपकर्षणके अयोग्य होते है, उन्हे अपकर्पणसे क्षीणस्थितिक कहते है और जिस स्थितिमे स्थित कर्म-प्रदेशा अपकर्षण के योग्य होते हैं, उन्हे अपकर्पणसे अक्षीणस्थितिक कहते है । इसी प्रकार जिस स्थितिके कर्म-परमाणु उत्कर्पणके अयोग्य होते है, उन्हें उत्कर्षणसे क्षीणस्थितिक और उत्कर्पण के योग्य कर्म - परमाणुओको उत्कर्पणसे अक्षीणस्थितिक कहते है । संक्रमणके अयोग्य कर्मपरमाणुओको संक्रमणसे क्षीणस्थितिक और संक्रमणके योग्य कर्म - परमाणुओको संक्रमणसे अक्षीणस्थितिक कहते है । जिस स्थितिमे स्थित कर्म - परमाणु उदयसे निर्जीर्ण हो रहे है, उन्हे उदयसे क्षीणस्थितिक कहते है और जो उदयके योग्य है, अर्थात् आगे निर्जीर्ण होगे, ॐ ताम्रपत्रवाली प्रतिमें इस सूत्र के अनन्तर 'समुक्कित्तणा परूवणा समित्तमप्पाचहुअं चेदि' यह एक और सूत्र मुद्रित है (देखो पृ० ८७६) । पर प्रकृत स्थलको देखते हुए यह सूत्र नहीं, अपितु जयधवला टीकाका ही अश है यह स्पष्ट ज्ञात होता है । ताडपत्रीय प्रतिमे भी इसके सूत्रत्वकी पुष्टि नहीं हुई है। १ ओक्ड्डणा णाम परिणामविसेसेण कम्मपदेसाण ट्ठिदीए दहरीकरण । तदो झीणा अप्पा ओग्गभावेण वहिदा हिंदी जस्स पदेसग्गस्स त ओक्डुगादो झीगहिदिय सव्वकम्माणमत्थि । अवा ओक्टुणादो सोणा परिहीणा जाहिदी त गच्छदित्ति ओकट्टणादो झणहिदिगमिदि समामो वायव्वो । एवमुवर सव्वत्थ । दद्दरर्राट्ठदिट्ठिदपदेसग्गाण ट्रिटदीए परिणामविसेसेण वद्रावण उपट्टणा णाम । तत्तो झीणा दिदी जस्सत पदेसग्गं सव्यपयडीणमत्थि । सकमादो समयाविरोहेण एयपर्यटपिटेसाण अष्णदयटि परिणमणक्पणादो क्षीणा ट्ठिदी जस्स त पि पदेसग्गमत्थि सन्धेमि कम्माण | उदयादो कम्मा प दाणपणादो शीणा टिठदी जस्स पढेसग्गम्म त च सव्वकम्माणमत्थि नि । जयध ין
SR No.010396
Book TitleKasaya Pahuda Sutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1955
Total Pages1043
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size71 MB
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