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________________ (१७) देना ही उचित समझा. आज्ञा पाकर अपनी आठों स्त्रियों को छोड़ कर भगवान के पास दीक्षा अंगीकार करी. भगवान ने उसे दीक्षित कर एक स्थिविर (विद्वान् ) साधू को उसे पढ़ाने के लिये आज्ञा दी. मेघ कुमार नवदीक्षित् और सर्व से छोटा होने के कारण रात्री में अपना सोने का संथारा (विछोना) विछा कर दरवाजे के समीप ही सोया. साधुओं के मात्रा इत्यादि के लिये वाहर जाने और भीतर आने से उसके विस्तर धूल से भर गये. मेघ कुमार जो आज के पहले फूलों की शय्या में शयन करता था आज ऐसे धूल से भरे हुवे संथारे में निद्रा न आने के कारण बहुत घबराया और मन में विचारने लगा कि निरंतर मुझ से तो ऐसा कष्ट सहन नहीं हो सकेगा. इसलिये प्रातःकाल ही भगवान से आज्ञा लेकर घर वापिस जाऊंगा. साधू के नियमानुसार प्रातःकाल ही उठ कर प्रभूको वंदना करने गया. भगवान तो केवलज्ञानी थे उनसे तीन लोक की कोई बात छिपी नहीं थी. रात के मेघ कुमार के विचार जान लिये और इस कारण उसके कहने के पहले ही कहने लगे कि हे मेघ कुमार ! रात को तूनें जो साधुओं की पैरों की रेत के कारण जो दुर्ध्यान किया है वो ठीक नहीं किया. जरा सोच तो कि पूर्व भव में तूंने पशु योनी में कैसे २ असह्य कष्ट भोगे हैं जिससे तूने राजऋद्धि पाई है और अब इस उत्तम मनुष्य भव में केवल साधुओं के पैरों की रज से जो सर्व पापों और दुःखों को क्षय करने वाली है उससे इतना घबराता है जरा ध्यान पूर्वक सुन कि तूं पूर्व भव में कौन था और कैसे कैसे दुःख सहे हैं. इस भव के पूर्व के तीसरे भव में, हे मेघ कुमार! तेरा जीव वैताढ्य पर्वत के पास के वनों में सफेद रंग का सुमेरू प्रम नाम का हाथी था तेरे ( हस्ती की योनी में) ६ दांत थे और हजार हथनियों का स्वामी था. एक समय उस जंगल में आग लगी देख और उसके भय से अपने प्राणों की रक्षा करने के हेतु अपनी सर्व हस्तनियों को छोड़ कर भागा. गर्मी के कारण प्यास से पीड़ित होकर एक तालाब में पानी पीने को उतरा. उस तालाव में पानी कम होने और कीचड जादा होने से तु दलदल में फस गया तूने निकलकर वाहिर आने की बहुत कोशिश की परन्तु नहीं निकले सका, उसी समय एक अन्य हाथी जो कि तेरा पूर्व भव का वैरी था वहां आगया और तेरे को दांतों द्वारा इतनी पीड़ा पहुंचाई के जिससे वहीं कीचड में फसे फसे.७ रोज बाद एकसो
SR No.010391
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikmuni
PublisherSobhagmal Harkavat Ajmer
Publication Year1917
Total Pages245
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size12 MB
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