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________________ (१७५) उसमें पं अरहा कोसलिए एगं वाससंहस्सं निचं वोस. ढकाए चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा जाव० अप्पाणं भावमाणम इक्कं वाससहस्सं विक्कं नं, तो णं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे सत्तम पक्खे फग्गुण बहुले, तस्स णं फग्गुणवहुलस्स इक्कारसीपक्खणं पुव्वण्हकालसमयंसि पुरिमतालस्त नयरस्त बहिश्रा सगडमुहसि उज्जाणंसि नग्गोहवरपायवस्म अहे अट्ठमेणं भत्तणं अपाणएणं प्रासादाहिं नकबत्तेणं जोंगमुवागएणं झाणंतरित्राए नट्टमाणस्स अणते जाव० जाणमाणे पासमाणे विहरइ ॥ २१२ ५ एक हजार वर्ष तक प्रभुजी छद्मस्थ अवस्था में रहे और साधुपना योग्य पालने से १००० वर्ष बाट फागण बढी ११ के रोज पहले पहर में पुग्मितालनगर के शकट मुख उद्यान में वड़ वृक्ष के नीचे तले के चउ विहार तप में पूर्वाषाढा नक्षत्र में चन्द्र गोग आने पर शुक्ल ध्यान के दूसरे पाया में प्रभु को केवल ज्ञान हुआ सर्वज्ञ होकर सबको प्रत्यक्ष देखते विचरने लगे. विनितानगरी के पुरिमताल नाम के पुरा में प्रभुको केवल ज्ञान हुआ उग समय भरत महाराज की आयुधशाला में देवताधिष्ठित चक्ररत्न हुआ ना भी धर्म रक्त भरत महाराजा ने प्रभु का महिगा पहला किया मरुदेवा माता जो पुत्र वियोग से रोती थी उसको हाथी पर बैठा कर लेचले रास्ते में पुत्र के भय की बात सुनकर हर्ष के आंसु आने से अखि सुलगई और दूर से ऋद्धि देग्य कर विचारने लगे कि मैने पुत्र के लिये इतना दुःख भोगा परन्तु ऐमी प्रद्धि वाला पुत्र मुझे कहलाता भी नहीं था इसलिये सब म्बार्थी हैं! अपना प्रान्मा ही राग द्वेष से व्यर्थ कर्म बन्ध करना है। ऐसा विचार में फेवल ज्ञान हुआ और आयु भी पूर्ण हुई थी जिसमे मुक्ति में गये देवान मरुदेवा का अंनिग महोत्सव किया पीछे प्रभु के पास गये प्रभुन देशना दी भग्न के ५०० पुत्र ... प्रपुत्र ने दीना ली ऋपभसेन आदि ४ गणधर स्थापन मिय.
SR No.010391
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikmuni
PublisherSobhagmal Harkavat Ajmer
Publication Year1917
Total Pages245
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size12 MB
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