SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१२१) ध्यान करना छ मास में वो सिद्ध होती है गोशाला की कार्य सिद्धि इच्छित होगई और सिद्धार्थपुर तरफ जाने के समय रास्ते में प्रभु को पूछा कि पूर्व का तिलका पौधा देखो कि उगा है या नहीं प्रभु ने कहा उगा है गोशाला अविश्वास लाकर वहां गया और देखा तो वैसाही तैयार देखा उसकी फली तोड़ी तो भीतर सातों ही तिल देखकर निधय किया कि जीव मरकर पुनः ( फिर ) वहांही उत्पन्न होते हैं गोशाला तेजोलेश्या सिद्ध करने को श्रावस्ती नगरी को गया, और कार्य सिद्धि कर पार्श्वनाथ के साधु पास अष्टांग निमित्त शीखकर सर्वज्ञ पद धारन किया प्रभु ने श्रावस्ती नगरी में जाकर विविध तपश्या से. १० वां चातुर्मास निर्वाह किया. प्रभु वहां से विहार कर म्लेच्छों की दृढ भूमि में गये वहां पेढाल गांव की बाहर पोलास चैत्य में अठम तपकर एक रात्रि रहे और ध्यान करने लगे. (इन्द्र की प्रशंसा और प्रभु को महान कष्ट) प्रभु की ध्यान में स्थिरता देखकर इन्द्र प्रशंसा करने लगा कि वीरभभु ऐसे ध्यान में निश्चल है कि तीन लोक में कोई भी उनको चलायमान करने को समर्थ नहीं वीरप्रभु की प्रशंसा संगम नाम के इन्द्र के सायानिक देव से सहन नहीं. हुई और खड़ा होकर प्रतिज्ञा कर बोला कि मैं उनको चलायमान करूंगा. इन्द्र को कहा कि आपको वीच में नहीं आना इन्द्र मौन रहा और संगम ने आकर वीरप्रभु के उपर ( १ ) धूल की दृष्टि की जिससे प्रभु का मुख नाक भी ढक गये श्वास भी नहीं लेसक्ते थे, (२) पीछे वज्र मुखवाली कीडिये बनाकर प्रभु के शरीर को चालणी समान कर दिया कि कीड़ी एक तरफ से भीतर घुसकर दूसरी तरफ निकलने लगी पीछे वज्र समान, (३) डांस वना फर दुःख दिया, पीछे (४) तीक्ष्ण मुख वार्ली घी मेल, ( ५ ) वीछु, (६) नौला, (७) सर्प, (८) उदर के जरिये से दुःख दिया, पीछे (8) जंगली मदोन्मत्त हाथी से और हथणी से (१०) दुःख दिया (११) पिशाच के अटूट हास्य, पीछे ( ११) शेर की दाहों से और नखों से पीडा की, (१२) पीछे त्रिशला और सिद्धार्थ राजा का रूप बनाकर उनके विलाप वताकर चलायमान करना चाहा पीछे ( १३ ) सेना बनाकर मनुष्यों द्वारा परों पर ६६
SR No.010391
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikmuni
PublisherSobhagmal Harkavat Ajmer
Publication Year1917
Total Pages245
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy