SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२० ) किया गोशाला ने वासुदेव नरफ पीठ की लोगों ने वैमा देखकर उसकी मारा चहां से मर्दन गांव में बलदेव के मंदिर में ध्यान किया गोशाला ने गुप्त भाग मूर्ति तरफ किया लोगों ने गुस्सा लाकर फिर मारा मुनि का रूप जानकर छोड़ दिया. प्रभु वहां से विहार कर उन्नाग सन्निवेश में गए रास्ते में दांत जिसके मुंह के बहार निकले थे ऐसे स्त्री पुरुष का जोड़ा देखकर हांसी की कि देखो ! कि ब्रह्माजी ने ढूंढ कर कैसी (दंतुर ) जोड़ी मिलाई हूँ ! ऐसा कटु वचन सुनकर उन्होंने उसी समय गोशाले को पीटकर हाथ पांव बांधकर बांस की झाड़ी (कुंज) में फेंक दिया किंतु प्रभु का छत्रवर मानकर जान से नहीं मारा और छोड़ दिया. वहां से प्रभु गो भूमि गये, और राजग्रही को जाकर आठव चीमामा चौमासी तप ( चार मास के उपवास ) से पूर्ण किया, दो मास विहार कर चीमासा की योग्य जगह न मिलने से अनियत वाम कर नवमा चौमासा पूर्ण किया. • पीछे रास्ते में कुर्म गांव तरफ जाने गौशाला ने मधू को पूछा कि यह तिल का पौधा में तिल होंगेवा नहीं प्रभु ने कहा कि होगा गौशाला ने प्रभु का वचनं जूठा करने को उठाकर एक जगह पर रखड़िया प्रभु का वचन सच्चा करने को व्यंतर देव ने वृष्टि की गो की खुरी लगने से वो पोढ़ा खड़ा भी हो गया और पुष्पों के जीव एक ही फली में तिल होगये. प्रभु वहां से विहार कर कुर्म गांव में गये, वहां पर वैक्यायन तापस ने आतापना लेने को माथे की जटा ( वालों का समूह ) खुला रखी थी जुएं जमीन पर गिरती थी उसकी दया की खातिर उसको उठाकर फिर जटा में रखता था गौशाला ने उसको युका शय्यातर ( जुएं का घर ) वारम्वार कह कर हांमी करने लगा तापस को गुस्सा आया उसने तेजुलेइया गोशाले पर छोड़दी वो जलने लगा गोशाला का रुदन सुनकर दयासागर प्रभु ने शीतलेश्या छोड़कर बचाया गोशाला बच गया और रास्ते में प्रभु से पूछा हे प्रभो ! तेजुलश्या क्या वस्तु हैं कैसे प्राप्त होती हैं प्रभु ने बताया कि इस तरह तप करने से होती हैं निरन्तर छठ ( दो उपवास ) और पारणा में एक मुटी भर उड़द उसके उपर तीन चुलु पानी गरम पानी और सूर्य सामने खड़े रहकर ~
SR No.010391
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikmuni
PublisherSobhagmal Harkavat Ajmer
Publication Year1917
Total Pages245
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_kalpsutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy