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________________ ३४ जीवन्धरचम्पू उत्तम काव्य, गुणीभूत व्यङ्गयको मध्यम काव्य और शब्दचित्र तथा अर्थचित्र ( शब्दालंकार तथा अर्थालंकार ) को जघन्य काव्य बतलाया है। साहित्य दर्पणकार विश्वनाथ कविने काव्यके दृश्य और श्रव्य इस प्रकार मूलमें दो भेद बतलाकर दृश्यके रूपक और उपरूपक ये दो भेद बतलाये हैं। रूपकके १ नाटक, २ प्रकरण, ३ भाण, ४ व्यायोग, ५ समवकार, ६ डिम, ७ ईहामृग, ८ अङ्क, ६ वीथी, १० प्रहसन ये दश भेद बतलाये हैं। तथा उपरूपकके १ नाटिका, २ त्रोटक, ३ गोष्ठी, ४ सहक, ५ नाट्यरासक, ६ प्रस्थानक, ७ उल्लाप्य, ८ काव्य, ६ प्रेक, १० रासक, ११ श्रीगदित, १२ शिल्पक, १३ विलासिका, १४ दुर्मल्लिका, १५ प्रकरणी, १६ हल्लीस, १७ भणिका और १८ रुलापक ये अठारह भेद बतलाये हैं। इन सबके लक्षण भरत मुनिके नाट्यशास्त्र, दश रूपक तथा साहित्यदर्पणमें स्पष्ट किये गये हैं। श्रव्य काव्यके पद्य और गद्य ये दो भेद बतला कर पद्यके १ मुक्तक, २ युग्मक, ३ संदानितक, ४ कलापक, ६ कुलक, ६ महाकाव्य, ७ काव्य, ८ खण्ड काव्य, ६ कोष और १० त्रज्या ये दश भेद वनलाये हैं तथा गद्य-काव्यके १ मुक्तक, २ वृत्तगन्ध, ३ उत्कलिकाप्राय और ४ चूर्णक ये चार भेद निर्दिष्ट किये हैं। इनके सिवाय गद्य-पद्य मिश्रित रचनासे युक्त चम्पू-काव्य कहा है। गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते' अर्थात् गद्य-पद्यमिश्रित रचना चम्पू कहलाती है। चम्पू-काव्यका विस्तार और उसकी लोकप्रियता ___ लोगोंकी रुचि विभिन्न प्रकारकी होती है, कुछ लोग तो गद्य-काव्यको अधिक पसन्द करते हैं और कुछ लोग पद्य-काव्यको अच्छा मानते हैं, पर चम्पू-काव्यमें दोनोंकी रुचिका ध्यान रक्खा जाता है इसलिए यह सबको अपनी ओर आकर्षित करता है। महाकवि हरिचन्द्रने जीवन्धरचम्पूके प्रारम्भमें कहा है कि गद्यावलिः पद्यपरम्परा च प्रत्येकमप्यावहति प्रमोदम् । हर्षप्रकर्ष तनुते मिलित्वा द्राग्बाल्यतारुण्यवतीव कान्ता । अर्थात् गद्यावली और पद्यावली दोनों ही प्रमोद उत्पन्न करती हैं फिर हमारा यह काव्य तो दोनोंसे युक्त है अतः मेरी यह रचना बाल्य और तारुण्य अवस्थासे युक्त कान्ताके समान अत्याह्लाद उत्पन्न करेगी इसमें संशय नहीं है। चम्पू-साहित्यकी ओर जब दृष्टि डालते हैं तो सर्वप्रथम त्रिविक्रम भट्टको 'नल-चम्पू' पर दृष्टि जा सकती है। इसमें नल-दमयन्तकी मनोहारिणी कथा गुम्फित की गई है। श्लेष परिसंख्या आदि अलंकार पद-पद पर इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं । पदविन्यास इतना सरस और सुकुमार है कि कविकी कलाके प्रति मस्तक श्रद्धावनत हो जाता है। इसी कविकी दूसरी रचना मदालसा चम्पू भी है। यह कवि ई० ६१५ में हुआ है। इसके वाद ई०६५६ में आचार्य सोमदेवके यशस्तिलक चम्पूकी रचना हुई है। इस चम्पूमें आचार्य ने कथाभागकी रक्षा करते हुए कितना प्रमेय भर दिया है ? यह देखते ही बनता है। इसके गद्य कादम्बरीसे भी चार हाथ आगे हैं। कल्पनाएँ अद्भुत हैं। कथाका सौन्दर्य ग्रन्थके प्रति आकपण उत्पन्न करता है । सोमदेवने प्रारम्भमें ही लिखा है कि जिस प्रकार नीरस तृण खानेवाली गायसे सरस दूधकी धारा प्रवाहित होती है उसी प्रकार जीवनपर्यन्त न्याय जैसे नीरस विषयका अध्ययन करनेवाले मुझसे इस काव्य-सुधाकी धारा बह रही है । इस ग्रन्थरूपी महासागरमें अवगाहन करनेवाले विद्वान् ही समझ सकते हैं कि आचार्य सोमदेवके हृदयमें कितना अगाध वैदुष्य भरा है। उन्होंने एक जगह स्वयं कहा है कि लोक-विम्ब और कवित्वमें समस्त संसार सोमदेवका उच्छिष्टभोजी है अर्थात् उनके द्वारा वर्णित वस्तुका ही सब वर्णन करनेवाले हैं । इस महाग्रन्थमें आठ समुच्छास है । अन्तके तीन समुच्छ्रासोंमें सम्यग्दर्शन तथा उपासकाध्यय
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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