SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकादश लम्भ स्वामी इस समस्त घटनाको दयापूर्वक देख रहे थे। देखते ही उनकी आशाएँ विषयों में जानेसे रुक गई। पुण्योदयसे सहित एवं काललब्धिसे प्रेरित होकर वे चतुर जीवन्धर स्वामी उस समय हृदयमें ऐसा विचार करने लगे ।।२१।। कि यह वानर काष्ठाङ्गारके समान है, यह फल राज्यके समान है, और यह वनपाल मेरे समान है अर्थात् जिस प्रकार मैंने काष्टाङ्गारसे राज्य छीन लिया है। वास्तवमें यह राज्य मेरे द्वारा छोड़ने योग्य है ॥२२॥ जो राज-लक्ष्मी बहुत दुःखसे प्राप्त होती है, कठिनाईसे जिसकी रक्षा होती है, जो चपल है, जिसका अन्त दुःखदायी है और जो नष्ट होकर भी चिरकाल तक दुःख उत्पन्न करती रही है उस राज-लक्ष्मीमें सुखका लेश कब हो सकता है ? अर्थात् कभी नहीं हो सकता ।।२३।। जिस प्रकार नदियोंके समूहसे समुद्र और बहुत भारी ईन्धनसे अग्नि सन्तुष्ट नहीं होती उसी प्रकार कामके वशीभूत हुआ यह पुरुष कभी भी काम-भोगोंसे संतुष्ट नहीं होता है ॥२४|| यह राज्य तेलरहित दीपककी लौंके समान है, जीवन चञ्चल है, यह शरीर बिजलीके समान क्षणभङ्गुर है, और आयु चपल मेघके तुल्य है। इस तरह इस संसारकी सन्ततिमें कुछ भी सुख नहीं है। फिर भी उसमें मूढ़ हुआ पुरुष अपना हित नहीं करता किन्तु इसके विपरीत मोह बढ़ानेवाला व्यथेका कार्य ही करता है ।।२५।। नश्वर विषयोंके द्वारा लभाया हआ वेचारा मनुष्य, मोहवश बहत दःख देनेवाले आरम्भजनित दोषोंको नहीं समझता है ।।२६।। यह मेरी कोमलाङ्गी स्त्री है, यह बहुत बुद्धिमान् पुत्र है, और ये मेरे पूर्वसंचित धन हैं इस तरह निबुद्धि हुआ यह नरपशु-अज्ञानी मानव, अणु बराबर सुखमें इच्छा उत्पन्नकर आरम्भके वशीभूत होता है और अधिकतर पहाड़के समान बहुत भारी दुःख ही प्राप्त करता है ॥२७॥ जो मनुष्य अविनाशी मोक्ष-लक्ष्मीको छोड़कर राज-लक्ष्मी प्राप्त करते हैं वे ग्रीष्म कालमें शीतल जलकी धारा छोड़कर मृग-मरीचिकाका सेवन करते हैं ।।२।। इसलिए बड़ी कठिनाईसे दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर बुद्धिमान मानवको आत्महितमें प्रमाद करना उचित नहीं है ॥२६॥ इस प्रकार मनमें विचारते हुए जीवन्धर स्वामीने उस समय बारह भावनाओंके द्वारा ऐसा वैराग्य प्राप्त कर लिया जिसे कोई चञ्चल नहीं कर सकता था। वे राज्यादिको तृणके समान तुच्छ मानते हुए वनसे बाहर निकले। बाहर आकर उन्होंने जिनेन्द्र भगवान्की पूजा की और धर्मरूपी अमृतके प्रदान करनेमें आलस्यरहित मुनिराजसे अपने मणिमय मुकुटके अग्रभागमें हस्तकमल लगाकर धर्मका श्रवण किया। धीर वीर एवं लक्ष्मीपति राजा जीवन्धर, धर्मका श्रवणकर धर्मविद्याके जानकार हो गये सो ठीक ही है, क्योंकि मणियोंके संस्कार करनेमें निपुण बुद्धिमान मनुष्योंके द्वारा मसानके ऊपर चढ़ाया हुआ उत्तम. मणि निर्मल ही हो जाता है ॥३०॥ तदनन्तर विनयी राजाने पूर्वभव जानने की इच्छासे, उन चारण ऋद्धिधारी मुनियों में जो ज्येष्ठ मुनि थे उनसे पूछा ॥३१॥ राजाके द्वारा पूछे गये अवधिज्ञानी मुनिराज जीवन्धर स्वामीके पूर्वभव ज्योंके त्यों कहने लगे ॥३२॥ समस्त पृथिवीतलका ललामभूत एवं धातकीखण्ड द्वीपका आभूषण स्वरूप एक भूमितिलक नामका नगर है। वह नगर, अत्यन्त गहरी परिखासे घिरा हुआ था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो बहुत भारी होनेके कारण दूसरी पृथिवीकी आशङ्कासे आये हुए समुद्रसे ही घिरा हो । विजयाध पर्वतके शिखरोंकी शङ्का उत्पन्न करनेवाले, गगनचुम्बी एवं चूनासे सफेद महलोंसे वह नगर सुशोभित था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो निरन्तर होनेवाले महोत्सवोंको देखने की इच्छासे आगत विमानगामी देवोंके विमानोंसे ही सुशोभित हो । वहाँके ऊँचे महलोंमें स्थित स्त्रियों के द्वारा किये हुए संगीतके मङ्गलमय शब्दसे नीचे चलनेवाले चन्द्रमाका हिरण सदा आकृष्ट होता रहता था। वहाँ स्त्रियोंके मणिमय आभूषणोंकी प्रभासे अन्धकारका समूह नष्ट रहता था अतः वहाँ के निवासी लोगोंको रात-दिनका कुछ विभाग ही नहीं मालूम
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy