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________________ जीवन्धरत्वम्पूकाव्य किया और उन गन्धर्वदत्ता आदि देवियोंके पुत्रोंके सत्यन्धर, सुदर्शन, धरणि, गन्धोत्कट, विजय, दत्त, भरत, तथा गोविन्द नाम प्रकट किये । इस तरह इन्द्रके समान लक्ष्मीके धारक धीर वीर राजा जीवन्धरको सुखसे निवास करते हुए तीस वर्ष व्यतीत हो गये ॥१५।। महाराज जीवन्धर, प्रसिद्धिमें चक्रवर्ती भरतके समान थे, नीतिमें राजा रामचन्द्र के तुल्य थे, सम्पत्तिमें इन्द्रके सदृश थे, धर्ममें युधिष्ठिर के समकक्ष थे और युद्ध में अर्जुनके अनुरूप थे। इस प्रकार भाग्यके भाण्डार स्वरूप जीवन्धर स्वामी भुजाके द्वारा धारणकर चिर काल तक पृथिवीका शासन करते रहे ॥१६॥ किसी समय, जिसमें वनोंका अन्त भाग सुशोभित हो रहा था, कोयलोंकी कूकसे जिसमें दिग्दिगन्त मुखरित हो रहे थे और विरही जनोंको जो दुःख देने वाला था ऐसा वसन्तका समय आया। तब फूल-फल आदिकी भेंट करते हुए वनपालने राजासे व वहारकी प्रार्थना की। फलस्वरूप राजा आठों स्त्रियोंके साथ नगरसे निकलकर जिसमें अधिक मात्रामें उत्तमोत्तम फलफूल तथा पल्लव आदि लग रहे थे ऐसे उपवनमें जा पहुँचे । वहाँ उन्होंने वनपालके द्वारा एकएकके क्रमसे दिखाये हुए पल्लवों, फूलों और फलोंसे लदे वृक्षों को देखते हुए चिरकाल तक विहार किया। वहाँ देवियोंने कौतुकवश अपने हाथोंसे फूलोंका चयन भी किया था। फूलोंका चयन करते समय उन देवियोंके स्तन हिल रहे थे, मध्यभाग झुक रहे थे, कपोल पसीनासे तर हो रहे थे, मुखमण्डल केशोंसे व्याकुल हो रहे थे, और चञ्चल कङ्कण झन-झन शब्द कर रहे थे ॥१७॥ इस तरह चिरकाल तक की हुई अनेक प्रकारकी वनक्रीड़ाओंसे जो थक चुकी थीं, क्रीड़ा के संमर्दसे जिन्होंने फूलोंको अस्त-व्यस्त कर दिया था और जिनके नेत्रोंके अन्तभाग चञ्चल हो रहे थे ऐसी स्त्रियोंके समूहके साथ वे कहीं बैठ गये। वहाँ उन्होंने गन्धर्वदत्ताके दोनों स्तनकलशोंपर कामदेव रूपी मदोन्मत्त हाथीकी मदधाराके समान आचरण करनेवाली कस्तुरीकी धारा छोड़ी तो गुणमालाके वक्षःस्थलपर सुगन्धित कस्तूरीसे मिश्रित चन्दनके रसका लेप लगा दिया । सुरमञ्जरीकी नाभिके ऊपर केशरके पङ्कसे लताका चित्र बनाया तो पद्माके गालों पर मकरीका चित्र लिख दिया । क्षेमश्रीके मुखपर कस्तूरीका तिलक लगाया तो लक्ष्मणाके स्तनोंपर मकरिकाके आकारपत्र की रचना कर दी। इसी तरह अन्य स्त्रियोंके भी यथायोग्य अलंकरण कार्यको करते हुए जीवन्धर स्वामी हर्पके साथ बैठे थे। वहाँ बैठे-बैठे ही उन्होंने वनके भीतर क्रीड़ा करनेवाला एक वानरोंका ऐसा झुण्ड देखा जो कि एक वृक्षसे ऊँची शाखावाले दूसरे वृक्षपर जल्दीसे, चढ़ जाता था, भयके कारण जिनके पक्षी उड़ गये थे ऐसे वृक्षोंको जो चञ्चल बना रहा था तथा निरन्तर अपने उदरोंसे बच्चोंको चिपटाकर उछलती हुई वानरियोंसे जो घिरा था ।।१८। उन वानरोंमें एक वानरी अपने पतिका अन्य वानरीके साथ संपर्क देखकर रुष्ट हो गई थी और तरुण वानर बड़ी दीनताके साथ अनेक उपायोंसे उस वानरीको शान्त करनेका प्रयत्न कर रहा था परन्तु चिरकाल तक प्रयत्न करनेपर भी वह उसे शान्त नहीं कर पा रहा था ॥१॥ तदनन्तर क्रोधसे भरी उस वानरीको शान्त करनेके लिए जब वह वानर समर्थ नहीं हो सका तो उसने दीन दशा बनाकर अपने आपको मृतककी तरह ज़मीनपर लिटा दिया । उस मायावी वानरको मृतककी तरह जमीनपर पड़ा देख वह वानरी भयसे काँप उठी और उसने पास जाकर उसकी वह दशा दूर कर दी। तदनन्तर जिसका अन्तःकरण बहुत भारी हर्षसे युक्त था ऐसे उस तरुण वानरने वानरीका आनन्द बढ़ानेके लिए उसे कटहलका एक बड़ा पका फल दिया ही था कि वनपालने अपने हाथ की चञ्चल छड़ीसे वानरीको डाँटकर वह सुन्दर फल शीघ्र ही छीन लिया ॥२०॥ जीवन्धर
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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