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________________ एकादश लम्भ कर दिया। माताके साथ जो तपस्वी लोग आये थे उन्होंने उन्हें उनकी इच्छासे भी अधिक धन दिया और प्रसन्नताके साथ एक मात्र पुण्यसे प्राप्त होनेवाले मोक्षमार्गका भी उपदेश दिया । अन्य मित्रगण पद्मा आदि रानियोंको भी ले आये सो उनके साथ एकान्तमें मिलकर तथा आलिङ्गन चुम्बनकर उनकी समस्त मानसिक व्यथाओंको नष्ट करनेवाली हर्षकी भूमि उन्हें प्राप्त कराई। __ तदनन्तर गोविन्द महाराजकी उत्तम लक्षणों वाली लक्ष्मणा नामकी कन्याको जो कि कान्तिसे सुवर्णलताके समान थी, कमलकी बोंड़ीके समान गोल स्तनोंवाली थी, पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान मुखवाली थी और कामदेवके धनुपके समान भौंहोंसे युक्त थी, उत्तमगुणोंसे युक्त लग्नमें जीवन्धर स्वामीने हर्प पूर्वक विवाहा ॥१४०।। उस समय, वेगसे इधर-उधर दौड़नेवाले परिजनोंके हाथमें स्थित वेत्रलताके पारस्परिक संघटनसे उत्पन्न शब्दसे जो मिल रहा था, मन्त्रज्ञ मनुष्योंके स्वच्छन्दतासे बोले हुए मन्त्रोंकी ध्वनिसे जिसका विस्तार हो रहा था, सभासद लोगोंके द्वारा दिये हुए आशीर्वादात्मक वचनोंसे जिसका विस्तार हो रहा था, घूमनेवाली अन्तःपुरकी स्त्रियोंके आभूषणोंकी झंकारसे जो मनोहर था, आगेसे मनुष्योंको हटानेमें तत्पर कञ्चुकी लोगोंके शब्दसे जो व्याप्त था, निर्दयतापूर्वक ताड़ित दुन्दुभि आदि बाजोंकी ध्वनिसे जो भरा हुआ था, और जो हजारों प्रकारकी कलकल ध्वनिसे परिपुष्ट था ऐसे उत्सवके कोलाहलसे तीनों लोक भर गये थे। जयलक्ष्मीके साथ विशाल कीर्तिको प्राप्त करनेवाले धीर-वीर जीवन्धर स्वामी, राज्यलक्ष्मीके साथ कुमारी लक्ष्मणाको भी प्राप्त कर प्रजामण्डलकी रक्षा करने लगे ॥१४१॥ इस प्रकार महाकवि श्री हरिचन्द्रविरचित जीवन्धरचम्पू-काव्यमें लक्ष्मणाकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला दशम लम्भ समाप्त हुआ। एकादश लम्भ राजा जीवन्धर अपनी भुजाके द्वारा कुन्दके समान निर्मल कीर्तिके समूहसे हर्षित रहनेवाली पृथिवीको धारण करते थे । उत्तम मधुके निष्यन्दके समान सुशोभित मधुर वाणीसे सत्यके विलासको धारण करते थे। चित्तके द्वारा राजनीतिकी पदवीको धारण करते थे। नेत्रके द्वारा समस्त प्रजाके योग और क्षेमकी कला धारण करते थे तथा हस्तके द्वारा दानका जल धारण करते थे अर्थात् दानका संकल्प करनेके लिए हाथमें सदा जल लिये रहते थे ॥ १॥ राजा जीवन्धरके प्रजापालनमें तत्पर रहनेपर प्रथिवी उत्तम राजासे यक्त रत्नगर्भा और वसुन्धराधन-धान्यसे पूर्ण हो गई थी ॥२॥ उनका यशोमण्डल-कीतिका समूह ठण्डा होनेपर भी शत्रुओंके संतापका कारण था, स्थिर होनेपर भी निरन्तर भ्रमण करनेवाला था, निर्मल होकर भी शत्रुओंके मुखकमलको मलिन करनेवाला था, धवल होकर भी प्रजाके अनुराग-प्रेम (पक्षमें लालिमा) से युक्त था, राजमण्डलनृपतिसमूह (पक्षमें चन्द्रमण्डल) की निन्दा करनेवाला होकर भी महाराजमण्डल-महाराजाओं के समूहको आनन्दित करनेवाला था। उनके प्रतापके अंकुर दिशारूप सुन्दरियोंके केशपाशोंमें कल्हार-लाल कमल की शङ्काको, कानोंमें किसलयसमूहके सन्देहको, स्थूल कुचकलशोंपर केशर
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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