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________________ ३२८ जीवन्धरचम्पूकाव्य नगरके समस्त झरोखोंके किवाड़ एक साथ खुल गये थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो उन्हें देखनेके कौतूहलसे नगरने नेत्र ही खोल रखे थे। उनके दर्शनके लिए नगरकी स्त्रियों महलोंके अग्रभाग पर जा चढ़ी थीं। उन स्त्रियों में कितनी ही स्त्रियाँ सजावटका काम आधा समाप्तकर बाँये हाथमें मणिमय दर्पण लिये ही दौड़ पड़ी थी इसलिए वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो पूर्ण चन्द्रमण्डलसे सुशोभित पूर्णिमाकी रात्रि ही हो। वेगसे चलनेके कारण कितनी ही स्त्रियोंकी मेखला उतरकर उनके पैरोंमें उलझ गई थी उससे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो शृङ्खलासे युक्त पैरों वाली कामदेव की प्रधान हस्तिनियाँ ही हों। कितनी ही स्त्रियोंके चरण कमल गीले लाक्षा रससे लाल-लाल हो रहे थे इसलिए वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो कमलोंक द्वारा प्रातः कालकी सुनहली धूपका पान करनेवाली कमलिनियाँ ही हों और कितनी ही स्त्रियाँ मरकत मणियों में खचित झरोखों में मुखकमल डालकर झांक रही थीं इसलिए ऐसी जान पड़ती थीं मानो खिले हुए एक कमलसे सुशोभित एवं आकाशमें विलसित कमिलिनियोंकी तुलना ही कर रही हैं । उक्त स्त्रियाँ फूलों सहित लाई की अंजलियाँ भर-भरकर जीवन्धर कुमारके ऊपर बिखेर रही थीं। उनकी वे लाई की अञ्जलियाँ हस्तकमलोंसे झड़ी हुई मकरन्दकी बूदोंकी शङ्का उत्पन्न कर रही थीं अथवा नखरूपी चन्द्रमासे निकले हुए तुषार कणोंका संशय बढ़ा रही थीं । जो आगे चलनेवाले अनेक बाजोंके शब्दोंसे मिला हुआ था, अग्रगामी चारण लोगोंका 'जय जय'का मधुर शब्द जिसमें मिल रहा था, क्षोभके कारण फूलोंपरसे उड़ते हुए भ्रमरोंकी झंकारसे जो परिपुष्ट था और महलोंके समूहसे उत्पन्न प्रतिध्वनिके कारण जो अत्यन्त दीर्घ हो रहा था ऐसे कोलाहलसे उन्होंने समस्त दिशाओंके अन्तरालको मुखरित कर दिया था। इस प्रकार समस्त नगरीकी प्रदक्षिणा देकर जीवन्धर स्वामी राजभवनके द्वारपर हाथीसे नीचे उतरे । देदीप्यमान मणियोंसे शोभित सुवर्ण पात्रको धारण करनेवाली वारवनिताओंके समूहने उनकी आरतीका मंगलाचार किया । तदनन्तर जिसके विस्तृत चन्दोवेमें मोतियोंकी मालाएँ लटक रही थी और जो अधिक मात्रामें जलते हुए धूपसे सुगन्धित था ऐसे मणिमय मण्डपमें प्रवेशकर उन्होंने कुल परम्परासे चले आये सिंहासनको अलंकृत किया। उस समय जीवन्धर कुमाररूपी चन्द्रमाके महान् उदयसे प्रजाके लोगोंका हर्षरूपी सागर लहराने लगा था और पुरवासी स्त्रियों के नयनरूपी कुमुदोंमें अश्रुजलके बहाने मकरन्दकी धारा सुशोभित होने लगी थी ॥१३३।। क्षुद्र राजा काष्ठाङ्गारने प्रजामें इतना अधिक क्षोभ उत्पन्न कर दिया था कि उसे देख दयालु जीवन्धर स्वामीने अपनी कीर्तिसे उज्ज्वल पृथिवीको बारह वर्पके लिए कररहित कर दिया था ॥१३४।। उन्होंने गन्धोत्कटको वृद्ध राजाके स्थान पर बैठाया। नन्दायको युवराजपद दिया, पद्मास्य आदि समस्त मित्रोंको उनके योग्य पदोंपर नियुक्त किया, तथा अन्य राजाओंको भी दयापूर्वक अपने-अपने पदोंपर स्थिर किया ॥१३५॥ राजा जीवन्धरने गन्धर्वदत्ताके अर्धचन्द्रके समान कोमल ललाटपर पट्टराज्ञीका पट्ट बन्धन किया ॥१३६।। जीवन्धर स्वामीने राजाओंकी भेंट लेकर उस भेंटसे भी दूने रत्न आदि वस्तुओंका समूह बड़े हर्षसे उन्हें बदले में दिया था ॥१३५।। राजा जीवन्धरने वृद्ध मन्त्रियोंका भी यथायोग्य सन्मान किया था और प्रत्येक वर्णके वृद्धजनोंका भी आदरके साथ सत्कार किया था ॥१३८। जो उदारता रूपी गुणके सर्वप्रथम उतरनेके लिए मार्ग स्वरूप थे तथा याचकोंके लिए इच्छित वस्तुओंके देनेमें जिन्होंने आदर बाँध रक्खा था ऐसे जीवन्धर स्वामीके जागृत रहते हुए शास्त्ररूपी समुद्रके पारगामी विद्वान् कहा करते थे कि कल्पवृक्ष, कामधेनु, और चिन्तामणिकी चर्चा केवल हास्यका ही कारण है ॥१३॥ तदनन्तर चतुरङ्ग सेनाके साथ जाकर नन्दाढ्य उनकी माता विजया महादेवीको ले आया । आते ही उन्होंने माताके चरणोंमें प्रणाम किया तथा उसे आनन्दरूपी समुद्र में निमग्न
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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