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________________ दशम लम्भ ३१७ चाहता था कि इतनेमें उस योद्धाने तलवार से उसकी सूँड़ काट दी। अब वह हाथी उसे पैरसे पीसने के लिए नीचे ले गया पर वह योद्धा शीघ्रता से उसके पैरोंके बीच में से निकल पूँछ पकड़कर ऊपर चढ़ गया और लगातार मुट्ठियों की मारसे उसने उसे मार डाला ||५३ || वहाँ कुन्दके फूलके समान सफेद तथा वायुको जीतनेवाले वेगसे युक्त घोड़े जब अपने दोनों अगले पैर आकाशकी ओर उठाते थे तब ऐसे जान पड़ते थे मानो आकाशतलपर आक्रमण करनेके लिए ही तैयार हो रहे हों। उनके सामने बड़े-बड़े पर्वतोंके समूह के समान जो हाथियोंके शरीर पड़े हुए थे उन्हें भी वे लाँघ जाते थे । युद्धरूपी सागरमें वे घोड़े परस्पर कलह करते हुए कल्लोलों (तरङ्गों ) के समान सुशोभित हो रहे थे । खुरोंके आघातसे पृथिवीको कम्पित करनेवाले किसी वेगशाली घोड़ेका शरीर यद्यपि बाणोंसे व्याप्त हो रहा था तो भी उसने शिक्षाका अनुसरण नहीं छोड़ा था अर्थात् प्राप्त हुई शिक्षा के अनुसार ही वह प्रवृत्ति कर रहा था। यही नहीं, शत्रु योद्धाने उसका पैर तलवार से काट डाला था तो भी वह तब तक नहीं गिरा जब तक कि उसके तलवारने उस शत्रु योद्धाको मार नहीं डाला || ५४ || किसी एक घुड़सवारकी दाहिनी भुजा कट गई थी इसलिए वह बाँयें हाथ से हो तलवार चलाता हुआ शत्रुके सामने गया था । आश्चर्यकी बात थी कि उस वीरकी अखण्ड शक्तिशाली बायीं भुजा ही शत्रुको खण्डित करनेवाली क्रीड़ामें दक्षिणता - दाँहिनापन ( पक्ष में चातुर्य ) को प्राप्त हुई थी ॥ ५५ ॥ घुड़सवारोंके द्वारा जिनके दण्ड काट दिये गये हैं ऐसे पृथिवीपर बिखरे हुए, पूर्ण चन्द्रमाके समान कान्तिवाले बड़े-बड़े छत्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो यमराजके भोजनके लिए बिछाये हुए चाँदीके थाल ही हों ॥ ५६ ॥ उस युद्धभूमि में तलवारोंके द्वारा कटे हुए घोड़ोंके मुखके अग्रभाग बड़े वेग से खून के प्रवाह में बहे जा रहे थे और वे दर्शकोंको यह भ्रान्ति उत्पन्न कर रहे थे कि कुछ घोड़ोंके शरीर खूनके प्रवाह में डूब गये हैं सिर्फ उनके मुख ही ऊपर की ओर उठ रहे हैं ॥ ५७ ॥ क्रोधवश शत्रु-योद्धाओंके समीप चलनेवाले योद्धाओंके हाथों में जो तलवारें लपलपा रही थीं वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो भुजारूपी चन्दनके वृक्षों की कोटरोंसे निकले हुए साँप शत्रुओंकी प्राणावली ( प्राणसमूह ) को खाना ही चाहते हों ॥ ५८ ॥ युद्ध मार्गको जाननेवाले एवं अहंकारपूर्ण सिंहनादको छोड़नेवाले कितने ही योद्धा अपरिमित बाणोंके द्वारा आकाश में कपड़ेका मण्डप तान रहे थे अर्थात् लगातार इतने बाण छोड़ रहे थे कि मण्डप सा तन गया था । सूर्यके सन्तापजन्य खेदको दूर करनेवाले वे योद्धा अपने भङ्गुर शरीरोंके द्वारा यशरूपी स्थायी शरीरको प्राप्त करनेकी इच्छा करते हुए इधरउधर घूम रहे थे || ५६ ॥ जिसकी वृत्ति युद्धकला में निपुण मनुष्योंको भी आश्चर्यमें डाल रही थी ऐसे किसी योद्धाके दोनों पैर, यद्यपि भुजारूपी दण्डमें कुछ तिरछी लगाई हुई पताकाके समान रखनेवाली तलवार को धारण करने वाले योद्धाने 'यह हमारे नामके पूर्वभागको धारण करता है, इस क्रोध से ही मानो काट डाले थे तो भी वह अपने धैर्यके ही समान अखण्डित एवं सुदृढ़ बाँस (पक्षमें उत्तम कुल ) से उत्पन्न धनुषका सहारा लेकर पृथिवीपर नहीं गिरा - धनुष पकड़कर खड़ा रहा। किसी योद्धाका नील मेघके समान काला कवच जब तलवाररूपी लताके द्वारा तोड़ डाला गया तब उसमें से निकलती हुई खूनकी धारा बिजलीकी सदृशता प्राप्त कर रही थी || ६० || शत्रु के बाणोंसे जिसका समस्त शरीर व्याप्त था ऐसा कोई एक योद्धा युद्धभूमि में ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि बहुत अँकुरोंसे सहित वृक्ष अथवा अनेक साँपोंसे व्याप्त चन्दनका वृक्ष सुशो भित होता है ॥ ६१ ॥
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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