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________________ ३१६ जीवन्धरचम्पूकाव्य सिपाहियोंकी बार-बार प्रकट होनेवाली बहुत भारी सिंहनादसे यह समस्त संसार एक शब्दरूपी सागरमें निमग्न होकर सभी ओर काँप उठा था ॥४०॥ उस समय रणमें विघ्न करनेवाली जो धूलिकी पंक्तियां आकाशमें फैल रही थीं उन्हें नष्ट करनेके लिए ध्वजाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो यमराजकी बुहारियाँ ही हों ।।४१॥ तदनन्तर युद्धके बाजोंका बढ़ता हुआ शब्द सुनकर देवलोग उन्मत्त राजाओंकी युद्धक्रीड़ा देखनेके लिए कौतुकवश आकाशमें इकट्ठे हो गये और साथमें कल्प वृक्षोंके वनसे उन फूलोंको लेते आये जिन्होंने कि सुगन्धिके कारण खिंचे हुए भ्रमर-समूहके शब्दको धारण कर रक्खा था ॥४२॥ अहङ्कारजन्य अट्टहाससे सहित दोनों ही सेनारूपो सागर, धीरे-धीरे एक दूसरेसे मिलकर इस प्रकार सुशोभित होने लगे जिस प्रकार कि प्रलयकालके समय बढ़ते हुए विशाल वेगके धारक दो समुद्र सुशोभित होते हैं ।।४३।। जहाँ जीतके बाजे बज रहे थे और धनुपकी डोरीके शब्द हो रहे थे ऐसे उस युद्ध के मैदानमें क्षणभरमें ही पैदल चलनेवाला पैदल चलनेवाले से, घुड़सवार घुड़सवारसे, मदोन्मत्त हाथीका सवार मदोन्मत्त हाथीके सवारसे और रथपर बैठा योद्धा रथपर बैठे योद्धासे मिल गया-भिड़न्त करने लगा ॥४४॥ उस समय मदोन्मत्त हाथियोंकी सूंड़ोंसे उछटे हुए जलके कण आकाशमें चमकते हुए ताराओंके समान जान पड़ते थे, देवाङ्गनाका मुख चन्द्रमा बन गया था, और धूलिसे सूर्य आच्छादित हो गया था इसलिए वह संग्रामकी क्रीड़ा निर्दोषा-दोषरहित (पक्षमें रात्रि रहित होनेपर भी) रात्रिके समान सुशोभित हो रही थी परन्तु विशेपता यह थी कि रात्रिमें भी रथाङ्ग-रथके पहिये निरन्तर क्रीड़ा करते रहते थेघूमते रहते थे।॥४५॥ कोई एक हाथीका सवार शीघ्रतासे हाथीके मुखपर पड़े विस्तृत आवरणको दूर नहीं कर पाया कि उसके पहले ही प्रतिद्वन्द्वी हाथीपर बैठे हुए योद्धाओंने अपने धनुषोंसे जो बाण छोड़े थे वे सामने पड़े हाथियों के गण्डस्थलोंमें जा चुभे थे। उनसे वे हाथी ऐसे जान पड़ते थे मानो जिनके मुखसे शब्द नहीं निकल रहा था ऐसे मयूरोंसे आरूढ़ उन्नत शिखरवाले पर्वत ही हों ॥४७॥ जो क्रोधसे चञ्चल थे, युद्ध की कलामें कुशल थे, परस्पर दाँतोंके संघटनसे उत्पन्न गम्भीर शब्द और अपनी गर्जनाके द्वारा गगनतलको भर रहे थे, गण्डस्थलोंसे झरनेवाली मदधाराकी सुगन्धिसे युक्त कर्णरूपी तालपत्रोंसे उत्पन्न वायुके द्वारा जो युद्ध-भूमिमें मूर्छित योद्धाओंको सचेत कर रहे थे, जिनकी पूँछ झुकी रहती थी, जो जङ्घाओंके वेगसे युक्त चरणनिक्षेपके द्वारा पृथ्वीको ऊँची-नीची कर रहे थे, और पूर्व तथा पश्चिमको वायुसे प्रेरित सजल मेघोंके समान जान पड़ते थे, ऐसे कोई दो मदोन्मत्त हाथियोंने एक दूसरेका सामनाकर समस्त देवताओंको रोमाञ्च उत्पन्न करने वाला भयङ्कर युद्ध किया। कोई दो हाथी परस्पर युद्ध कर रहे थे। उनके दाँतोंकी टक्करसे उत्पन्न हुए अग्निके देदीप्यमान कण मजीठ वर्णके चमरोंमें मिल रहे थे जिन्हें योद्धा लोग समझ रहे थे कि क्या ये सुवर्णकी चमकीली चूड़ियोंके टुकड़े हैं ? ॥४८॥ जिसका भ्रमण अत्यन्त कठोर था ऐसे किसी हाथीने प्रतिद्वन्द्वीका पैर पकड़कर क्रोधवश आकाशमें घुमाकर उसे बहुत ऊँचे फेंक दिया परन्तु उस मानी प्रतिद्वन्द्वीने शीघ्र ही आकर अपनी तलवारसे उसके दोनों गण्डस्थल भेद डाले ।।१६॥ उस युद्धमें हाथियोंसे उछटे हुए मोतियोंकी निरन्तर वर्षा होती थी जिससे वहाँकी भूमि मुक्तामय (मोतियोंसे प्रचुर पक्षमें रोगरहित ) हो गई थी फिर भी खेदकी बात थी कि वह गदाढ्या-रोगोंसे सहित (पक्षमें गदा नामक शस्त्रसे सहित ) हो गई थी ॥५०॥ कोई एक हाथी किसी शत्रुको सूंडसे पृथिवीपर गिराकर दाँतोंसे उसे मारना ही चाहता था कि इतने में उस धीरवीर शत्रुने दाँतोंके बीचमें घुसकर तलवारसे उसकी सूंड़ काट दी ॥५१॥ क्रोधसे व्याप्त हुआ कोई हाथी चक्रके द्वारा कटकर अग्रभागसे पृथिवीपर पड़ी खूनसे लथपथ अपनी सूंड़को ही पैरसे पीस रहा था ॥५२॥ कोई एक हाथी किसी योद्धाको अपनी सँड़के नथनेसे पकड़कर मूलाकी भाँति उसे उछालना
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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