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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य मैं प्यास से पीड़ित चित्तवाली अपनी सती स्त्रीको यहीं बैठाकर तालाब के तटपर जलके लिए गया था पर वापिस आने पर भाग्यकी प्रतिकूलतासे उस कमललोचनाको यहाँ नहीं देख रहा हूँ ||३३|| हे नरोत्तम ! मेरी विद्या और मनोवृत्ति दोनों ही उसके साथ चली गई हैं इसलिए वह कहाँ गई होगी इसकी चिन्ता भी नहीं की जा सकती है ||३४|| इस प्रकार मैं कर्तव्य के विषयमें मूढ़ हो रहा हूँ और आप बुद्धिमानों में अग्रगण्य हैं इसलिए हे नरोत्तम ! मुझे लक्ष्यकर बतलाइये कि इस समय मुझे क्या करना चाहिए ||३५|| इस तरह विद्याधरके दीनताभरे वचन सुनकर समुद्रके समान गम्भीर जीवन्धर स्वामी मन्द मुसकानकी कान्तिके कपटसे अमृत की धाराको बिखेरते हुए निम्नाङ्कित गंभीर वचन बोले । २६२ उन्होंने कहा कि धीरता और उदारता से रहित राजा, बुद्धिहीन गुरु, कार्य - अकार्यके विचार से शून्य मन्त्री, युद्धभीरु योद्धा, सर्वज्ञके स्तवनसे रहित कवि, वक्तृत्वकला से रहित विद्वान् और स्त्री-विषयक वैराग्यकी कथासे अनभिज्ञ पुरुष – ये सब साधारण हैं - एक समान तुच्छ व्यक्ति हैं ||३६|| यतश्च मृगनयनी स्त्रियोंका चित्त वज्र से भी अधिक कठोर होता है, वचनका प्रचार फूलसे भी अधिक कोमल होता है और कार्य अपने केशसे भी अधिक कुटिल होता है इसीलिए विद्वान् लोग उनका विश्वास नहीं करते हैं ||३७|| स्त्रीका मुख कफका भाण्डार है परन्तु मूर्ख कवि कहते हैं कि यह चन्द्रमाके समान शोभित होता है, दोनों नेत्र मलसे भरे हैं परन्तु मूर्ख कवि कहते हैं कि ये विकसित नील कमल के समान सुशोभित हैं, स्तन मांसके सघन पिण्ड हैं परन्तु मूर्ख कवि उन्हें हाथीका गण्डस्थल बतलाते हैं, और नितम्बमण्डल खून और हड्डियों के से व्याप्त है परन्तु मूर्ख कवि उसे बालू का बड़ा भारी टीला बतलाते हैं सो वास्तव में यह कवियों के रागका उद्रेक ही है ||३८|| जब दयाको विस्तृत करनेवाले जीवन्धर स्वामीने देखा कि इस विद्याधरके जड़ हृदयमें मेरे वचन ठीक उस तरह नहीं ठहर रहे हैं जिस तरहकी कुत्तेके पेटमें घी नहीं ठहरता है । तब वे उस वन से बाहर निकल गये और किसी उपवनकी भूमिमें जा पहुँचे । वह उपवनकी भूमि किसी स्त्रीके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार स्त्री मुख-भाग - ललाटमें लगे हुए तिलकसे सुशोभित होती है उसी प्रकार वह उपवनकी भूमि भी मुख - भाग - अग्रभागमें लगे हुए तिलकसे सुशोभित थी । जिस प्रकार स्त्री पृथुलकुच विराजिता अर्थात् स्थूल स्तनोंसे सुशोभित होती है उसी प्रकार वह उपवनकी भूमि भी पृथु लकुच विराजिता अर्थात् स्थूल लकुचके फलों से सुशोभित थी । जिस प्रकार स्त्री अक्षतरूप शोभिता - अखण्डरूप से सुशोभित रहती है उसी प्रकार वह उपवनकी भूमि भी अक्षत रूप शोभिता - अक्ष - बहेड़े के वृक्षों से उपशोभित थी और जिसप्रकार स्त्री मदनाfuष्ठता कामसे युक्त होती है उसी प्रकार वह उपवनकी भूमि भी मदनाधिष्ठिता - मैंनार वृक्षों से सहित थी । उस उपवन की भूमि में भ्रमरसमूहकी भंकार कानोंको, नवीन पुष्पोंसे लदे वृक्ष नेत्रको, विकसित कमलकी सुगन्धि घ्राणको, वापिका मनको, वायु स्पर्शनको और पके हुए रसीले फल रसना इन्द्रियको सुखी कर रहे थे। इस तरह सभी इन्द्रियाँ वहाँ सुखको प्राप्त हो रही थीं ॥ ३६॥ उस उपवनमें वनकी लक्ष्मीके समान विशाल और कमलोंसे सुन्दर ( पक्षमें कमल के समान सुन्दर) निर्मल सरोवर परम आनन्द उत्पन्न कर रहा था ||४०|| वहाँ एक आमका वृक्ष था जो बहुत ही ऊँचा था । पक्षियोंके समूह से उसके हरे-हरे पत्ते व्याप्त थे और मधुके लोभी भ्रमरोंके समूहसे जो काला काला दिख रहा था । उसकी डालीके अग्र भागपर फल सुशोभित था जो वन देवताकी रससे परिपूर्ण सुवर्णमय पिटारीके समान जान पड़ता था और परिपाकके कारण पाटलवर्णका हो रहा था। उस फलको गिरानेके लिए राजाके लड़के प्रयत्न कर रहे थे परन्तु उनके वाणोंके समूह लक्ष्यभ्रष्ट हो रहे थे । धनुष विद्याके लोकोत्तर
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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