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________________ २६० जीवन्धरचम्पूकाव्य नेत्र प्रधान हैं उसी प्रकार मोक्षके समस्त अङ्गों में सम्यग्दर्शन प्रधान माना जाता है ॥ १०॥ ज्ञान, दर्शन और सुख ही जिसका लक्षण है ऐसी निर्मल आत्मा समस्त अपवित्रता के मूल कारण शरीरादिसे भिन्न है ऐसा कहा गया है || ११ || इत्यादि रूपसे निज और परका संशय रहित ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सम्यग्ज्ञानी मनुष्यको निश्चय ही पर द्रव्यका त्याग करना चाहिये ||१२|| त्याग करनेवाले जीव अनगार और सागारके भेदसे दो प्रकार के कहे गये हैं । उनमें जो समस्त पापोंका त्याग कर देते हैं वे अनगार कहलाते हैं ||१३|| जिस प्रकार किसी बड़े बैलके द्वारा उठाने योग्य भारको उसका बच्चा नहीं उठा सकता है उसी प्रकार तुम भी मुनियोंके धर्मको नहीं उठा सकते हो इसलिए तुम गृहस्थका धर्म धारण करो। इसके प्रभावसे मुक्तिरूपी लक्ष्मी तुम्हारे निकट हो जावेगी || १४ || जो सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानके धारक होकर पाँच अणुव्रतों सम्पन्न होते हैं तथा गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंके धारण करनेमें उद्यत रहते हैं वे पापारम्भ करने वाले गृहस्थ कहलाते हैं ||१५|| हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापांसे कथंचित्एक देश विरक्त होना तथा मद्य, मांस और मधुका त्याग करना ये आठ मूल गुण हैं ॥ १६ ॥ दिग् देश तथा अनर्थदण्डसे जो विरति होती है उसे गुणत्रत कहा है ||१७|| आगमके जानने वालोंने सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग और संल्लेखना ये चार प्रकार के शिक्षात्रत बतलाये हैं ||१८|| इन उपर्युक्त व्रतोंसे सम्पन्न मनुष्य किसी देश और किसी कालमें महाव्रती होता है इसलिए गृहस्थोंका धर्म अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए ||१६|| इस प्रकार जीवन्धर स्वामीके द्वारा प्रतिपादित धर्मको उस शूद्र पुरुषने शिरसे तथा हृदयसे स्वीकृत किया । जीवन्धर स्वामीने अपने मणिमय आभूषण उतारकर उसे दे दिये । उनके वे आभूषण ऐसे जान पड़ते थे मानो अन्तर्गत प्रतापकी बीड़ियों का समूह हो । धर्मात्मा शूद्र मानवने वे आभूषण बहुत भारी आदरसे युक्त हाथ से ग्रहण किये। उसके लिए वे आभूषण ऐसे जान पड़ते थे मानो उसका परिपाकको प्राप्त हुआ भाग्यका समूह हो । हर्पाश्रुओं के जलसे वह उन आभूषणोंको मानो धो ही रहा था, और बहुत भारी संतोषसे उसका अन्तरङ्ग कोर कित . हो गया था । जीवन्धर स्वामी उस धर्मात्माको विदाकर तथा उसीका स्मरण करते हुए उस - से बाहर निकले । उस समय सूर्य आकाशके मध्यको, हरिण जलसे भरी वृक्षको क्यारीको, मनुष्यों की जिह्वा . शोषणको और शरीर निकलते हुए पसीनाको एक साथ प्राप्त हो रहा था ॥२०॥ उस समय, जिनके गण्डस्थल घिसे हुए चन्दनके रससे सफ़ेद थे, जो अपने अतिशय चञ्चल कर्णरूपी तालपत्रकी हवासे अपने मुखोंको हवा कर रहे थे तथा सूँड़से छोड़े हुए जलके . छींटों से जो हृदय स्थलको सींच रहे थे ऐसे जङ्गली हाथी जब परिणत सूर्य के संतापसे दुखी "होनेके कारण धीरे-धीरे आकर सरोवर में प्रवेश कर रहे थे, भ्रमर कर्णिकारकी बोड़ियोंको भेदकर उनके भीतर छिप रहे थे । कारण्डव पक्षी संतप्त जलको छोड़कर कमिलिनीके शीतल पत्तोंकी सेवा कर रहे थे और पिंजड़ों में बद्ध क्रीडाशुक जब पानीकी याचना कर रहे थे तब जीवन्धर . स्वामी यद्यपि तीनों जगत् में एक छत्रके समान आचरण करनेवाले कीर्तिमण्डलके द्वारा समस्त जनताके संतापको नष्ट करनेवाले थे तो भी थककर विश्राम करनेके लिए नमेरु वृक्षके नीचे पहुँचे । समुद्रके समान गम्भीर और सुमेरुके समान स्थिर जीवन्धर स्वामी वहाँ बैठे ही थे कि मधुर शब्द सुनते ही इस प्रकार संशय करने लगे ||२१|| क्या यह कामदेवके धनुषकी टङ्कार है, या मदोन्मत्त भ्रमरों की भंकार है ? या हंसोंका मनोहर कण्ठनाद है या क्रीड़ाकोकिलाओंका सुन्दर आलाप है ? ॥२२॥
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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