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________________ तृतीय लम्भ २६६ क्रम - क्रमसे जिसकी लालिमा बढ़ रही है ऐसी संध्यारूपी स्त्रीका जिस प्रकार चन्द्रमा आलिङ्गन करता है उसी प्रकार क्रम क्रमसे जिसका अनुराग बढ़ रहा है ऐसी गन्धर्वदत्ताका जीवन्धर स्वामीने आलिङ्गन किया । उसी समय उनका सारा शरीर रोमानोंके समूहसे व्याप्त हो गया जिससे ऐसा जान पड़ने लगा कि मानो कामदेवरूपी योद्धाने नवमल्लिकाकी बड़ी रूप अपने बाण उनपर चलाये हों। कभी तो जीवन्धर स्वामी सुरतरूपी नाटकके नान्दी पदों ( प्रारम्भिक मङ्गलगायनों ) के समान मीठे-मीठे वचन बोलते थे और कभी उसके उत्तरीय वस्त्रको खींचते थे । उत्तरीय वस्त्रके हट जाने के कारण वह लजाती हुई अपनी कोमल भुजाओंके स्वस्तिक से स्तनरूप कुड्मलोंको ढक लेती थी। फलस्वरूप जीवन्धर स्वामी उसके कुड्मलका अनायास अवलोकन नहीं कर सकते थे अतः जिस किसी तरह उसके स्तनरूपी पूर्वाचलके शिखरपर इनका नेत्ररूपी चन्द्रमा स्थान प्राप्त कर सका था । फलस्वरूप बढ़ते हुए कामसागर के सलिलप्रवाहसे उसके नितम्ब मण्डलरूपी पृथिवी - मण्डलको तर कर सके थे । गन्धर्वदत्ताको यद्यपि वार्तालाप करनेका कौतुक उठता था तो भी लज्जाके कारण वह कुछ कहने के लिए समर्थ नहीं हो पाती थी । वह चाहती थी कि मेरे नेत्र रूपी चकोर पतिके मुखरूपी चन्द्रमाके समीप विहार करें परन्तु लज्जाके कारण वह नेत्रोंको उनके सम्मुख करनेके लिए समर्थ नहीं हो पाती थी । यद्यपि फूलके समान कोमल पतिके शरीरका स्पर्श करनेका लोभ उसे सता रहा था तो भी वह ऐसा करने के लिए काँप उठती थी । भौंह, कपोल, ठोड़ी, ओठ, नेत्र तथा स्तनोंके चूचुक आदि स्थानोंपर वे बार-बार चुम्बन करते थे । कभी स्वेदके कारण जिनमें कोमलता आ गई थी ऐसे नाखूनों से अत्यन्त कठोर कुचकलशके तटपर नखाघात करनेके चिह्न बना देते थे, कभी नखों को उष्ण कर देने वाले उसके स्तनोंके शिखर से अपना हाथ हटाकर उसके नाभिरूपी गहरे सरोवर में डालते थे, कभी कामरूपी युद्धको सूचित करनेवाले करधनीके कलकल शब्द रूपी समर्थ बाजो के शब्दों से सुशोभित उसका नीवीबन्धन खोलते थे और कभी कामरूपी मदोन्मत्त हाथीके बाँधनेके खम्भाके समान सुशोभित उसके ऊरूस्तम्भका मानो कामरूपी हाथी को छोड़नेके लिए ही स्पर्श करते थे । इस प्रकार उसके साथ सातिशय क्रीडा करते थे । इस प्रकार अनुपम सम्पदाके द्वारा समस्त जगत्के स्तुत्य वे दोनों ही दम्पती जिस प्रकार आनन्द रूपी सागर के परंपार में स्थित थे उसी प्रकार वचनोंके भी परंपार में स्थित थे अर्थान वचनोंके द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ||७०ll इस प्रकार महाकवि हरिचन्द्र विरचित जीवन्धरचम्पू काव्य में गन्धर्वदत्त की प्राप्तिका वर्णन करनेवाला तृतीय लम्भ समाप्त हुआ ।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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