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________________ २६८ जीवन्धरचम्पूकाव्य कृशताको प्राप्त हुए मध्यभागके द्वारा सहाराके लिए ग्रहणकी लाठी ही थी, अथवा नाभिरूपी वामी मुख से निकलती हुई काली नागिन ही थी । इस मृगनयनीके स्तन ऐसे जान पड़ते थे मानो रोमराजि रूपी लता के दो गुच्छे ही हों और इसीलिए वे जीवन्धर कुमारके नेत्ररूपी भ्रमरोंको अपनी ओर खींच रहे थे || ५६ || हाररूपी बिजली से सहित तथा नीलाम्बर - नीलवस्त्र ( पक्ष में नीले आकाश ) के भीतर वृद्धिको प्राप्त उसके पयोधरों-स्तनों ( पक्ष में मेघों ) की उन्नत कामरूपी मयूरको पुष्ट कर रही थी ॥ ५७ ॥ उसके दोनों स्तन क्या थे मानो चूचुकरूपी उत्तम लाखसे मुद्रित कामदेवके रससे परिपूर्ण दो कलश ही थे और कभी गिर न जावें इस भयसे विधाताने उन्हें लोहे की कीलोंसे कीलित कर दिया था क्या ? || ५८ | उस सुलोचना की लम्बी लम्बी भुजाएँ आकाश- गङ्गा में सुशोभित सुवर्ण कमलिनीकी मृणालके समान थीं और ऐसी जान पड़ती थीं मानो कामीजनों को बाँधनेके लिए विधाताके द्वारा बनाये हुए दो बड़े बड़े पाश - जाल ही हों ॥ ५६ ॥ गन्धर्वदत्ता स्वयं एक पतली लताके समान थी और कोमल तथा स्निग्ध शोभासे सम्पन्न उसकी दोनों भुजाएँ शाखाओंके समान सुशोभित हो रही थीं। उसकी भुजारूपी शाखाएँ अपनी अङ्गलियोंरूपी पल्लवों से सहित थीं, नख ही उनके सुन्दर फूल थे और मनोहर शब्द करनेवाली' मरकतमणिकी चञ्चल चूड़ियाँ ही उनपर छाये हुए भ्रमर थे ॥ ६०॥ उस खञ्जनलोचनाके शङ्खतुल्य कण्ठ में वीर कामदेव ने यह सोचकर ही मानो तीन रेखाएँ खींच दी थीं कि इसने तीनों जगत्को जीत लिया है ॥ ६१ ॥ उसके अधरोष्ठको कितने ही लोग तो ऐसा कहते हैं कि यह मुखरूपी चन्द्रमाके समीप शोभा पानेवाला संध्याकालीन राग ही है-सन्ध्याकी लाली ही है, कोई कहते हैं कि यह नवीन पल्लव ही है, कोई कहते हैं कि यह मुखको कान्तिरूपी समुद्रका मूँगा ही है पर हम कहते हैं कि यह दन्त पङ्कक्तिरूपी मणियोंकी रक्षाके लिए लाखसे लगाई हुई मनोहर मुहर ही है || ६२ || बहुत भारी माधुर्य से भरी हुई उसकी वाणी कोयलोंके कलरवकी निन्दा करने में निपुण थी । वह अमृतको लज्जा प्रदान करती थी, मुनक्का दाखका तिरस्कार करती थी, पौंड़े और ईखकी सरीली शक्करको खण्डित करती थी और श्रेष्ठ मधुको भी नीचा दिखाती थी || ६३ | | उसकी नाक ऐसी जान पड़ती थी मानो मुखरूपी चन्द्रविम्बसे नूतन अमृतकी एक मोटी धारा निकलकर जम गई हो – दृढ़ताको प्राप्त हो गई हो अथवा दन्तपक्तिरूपी मोतियों और मणियों को तौलनेकी तराजू की दण्डी ही हो ||६४|| उस गन्धर्वदत्ता के मुखरूपी सदन में जगद्विजयी कामदेव रहता था इसलिए उसने उसकी टेढ़ी भौंहको धनुष और उसकी आँखोंको वाण बना लिया था । यही कारण है कि उसकी कमलतुल्य आँखोंके अग्रभागमें जो लालिमा थी वह समस्त तरुण मनुष्योंके मर्मस्थल छेदनेसे उत्पन्न हुई खून सम्बन्धी लालिमा ही थी ॥ ६५ ॥ उत्पलके बहाने मनुष्यों के नेत्ररूपी पक्षियोंको पकड़कर रखनेवाले उसके दोनों कान ऐसे जान पड़ते थे मानो मनुष्यों के नेत्ररूपी पक्षियों को बाँधनेके लिए विधाताके द्वारा बनाये हुए दो पाश ही ||६६|| ऐसा जान पड़ता है कि चन्द्रमा रात्रिके समय उसके मुखकी कान्तिरूपी धनको चुराकर आकाश मार्गरूपी वनमें वेगसे भागता है और दिनके समय कहीं जाकर छिप जाता है । यदि वह कान्तिरूपी धनको हरनेवाला नहीं है तो फिर उसके बीच में यह कलङ्क क्यों है ? ||६७॥ उस कृशाङ्गीके केश क्या थे ? मानो मुखचन्दकी कान्तिरूपी समुद्र के फैले हुए शेवाल ही थे, अथवा मुखरूपी चन्द्रमाके इधर-उधर इकट्ठे हुए सघन मेघ ही थे, अथवा कामरूपी अग्निसे उठता हुआ सान्द्र धूमका समूह ही था, अथवा मुखकमलपर मँडराते हुए भ्रमरोंका समूह ही था || ६८ || वह गन्धर्वदत्ता क्या किन्नराङ्गना थी, या असुरकी स्त्री थी, या कामदेवकी स्त्री-रति थी, या सुवर्णकी लता थी, या बिजली थी, या तारिका थी अथवा क्या नेत्रों की भाग्य रेखा थी ? ||६६॥
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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