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________________ २६० जीवन्धर चम्पूकाव्य तदनन्तर विजयी धनुषरूपी इन्द्र-धनुषको धारण करने वाले जीवन्धररूपी मेघके द्वारा लगातार छोड़ी हुई बाणधारारूपी जलधाराके द्वारा जब कालकूट नामक भीलोंके राजाकी सेनाकी प्रतापाग्नि शान्त हो गई तब युद्धकी भूमिमें हज़ारसे भी अधिक खूनकी नदियाँ बह निकलीं। वे खनकी नदियाँ तीक्ष्ण शस्त्रोंके द्वारा कटे हुए हाथियोंके पैररूपी कछुओंसे सहित थीं। भालोंके द्वारा कटे हुए घुड़सवारोंके मुखरूपी कमलोंसे सुशोभित थीं और मदोन्मत्त हाथियोंके कानोंसे गिरे हुए चामर रूपी हंसोंसे अलंकृत थीं। __ इस प्रकार धीरवीर जीवन्धर कुमारने भीलोंकी सेनाको जीतकर यशरूपी फूलोंके द्वारा दिशारूपी स्त्रियों को सुगन्धित किया था और झरते हुए दूधके द्वारा जिसने समीपका प्रदेश सींच दिया है ऐसे दूधके मेघोंकी तुलना धारण करनेवाले पशुओंके समूहको वापिस छीन लिया था ॥ ३१ ॥ जो कामदेव, पहले शम्बराराति अर्थात् महादेवजी का शत्रु और चापलालि जीवन्धर अर्थात् चञ्चल भ्रमररूपी डोरीको धारण करने वाला इन दो नामोंसे जगत्में प्रसिद्ध था वही इस समय शवराराति अर्थात् भीलोंका शत्रु और चापलालि जीवन्धर अर्थात् धनुषसे सुशोभित जीवन्धर कुमार हुआ था। इस प्रकार बिन्दुमात्रसे भी विशेषता नहीं थी। अर्थात्-जीवन्धर कुमार कामदेव रूपी ही था । कामदेव पहले सारसशर अर्थात् कमलरूपी बाणसे सहित था और इस समय जीवन्धर सरसशर थे अर्थात् बलवान् वाणसेसे सहित थे । इस प्रकार इन दोनोंमें यद्यपि आकार--दीर्घाकारकी अपेक्षा विशेषता थी तथापि इनमें आकारसाम्य-आकृति की सहशता अखण्ड रूपसे सुशोभित थी ही यह विचित्र बात थी। तदनन्तर जो गगनतलमें फैली हुई पताकाओंरूपी भुजाओंके द्वारा मानों यह बतला रहा था कि नागरिकोंका हर्षातिरेक इतना भारी है । इस प्रकार हर्षसे भरे नगर में जीवन्धर कुमारने प्रवेश किया। उस समय जीवन्धर यद्यपि स्वयं विशिख अर्थात् बाण अथवा हृदयके आधार थे तो भी विशिखा अर्थात् गलीकी आधेयताको प्राप्त हो रहे थे और समस्त मित्र-मण्डलीके मध्यमें अध्यासीन थे इसलिए शूरवीरता, स्थिरता और धीरतारूपी मञ्जरियोंसे मनोहर उनके शरीररूपी सुगन्धित आम्रवृक्षपर कीर्तिरूपी सुगन्धिसे खिंचे नगरवासी तथा देशवासी लोगोंके नेत्ररूपी भौंरे निरन्तर दौड़े चले आ रहे थे। नन्दगोप नामसे प्रसिद्ध मेघने शीघ्र ही हर्षरूपी समुद्रका पानकर शुभ लक्षणोंसे सुशोभित जीवन्धर कुमारके करकमलपर जलपात किया-जलधारा छोड़ी ॥३२॥ जीवन्धरने भी नन्दगोपके द्वारा छोड़ी हुई जलधारा को 'पद्मास्य योग्य है' इस वचनरूपी धाराको छोड़ते हुए ही स्वीकृत किया था। जीवन्धरकी वह वचनधारा अत्यन्त शुद्धवर्णा थीशुद्ध रूपवाली थी (पक्षमें शुद्ध अक्षरोंसे युक्त थी) और ऐसी जान पड़ती थी मानो मन्दमुसकानके सम प्रकाशित कुन्दके फूलोंकी कान्तिरूपी तरङ्गमें स्नान करनेसे ही वह शुद्धवर्णा हो गई थी। जीवन्धर कुमारने निःस्पृह होकर कहा कि मुझमें और पद्मास्यमें पर्यायभेद है जीवभेद नहीं है। इस प्रकार अपनी मित्रताके वैभवको प्रकट करते हुए उन्होंने मित्रजनोंके हर्प और शत्रुजनोंके द्वेपके साथ-साथ पद्मास्यके विवाह महोत्सवका प्रारम्भ किया। तदनन्तर विवाहके योग्य पद्मास्यने शुभमुहूर्तमें अग्निको आगेकर विधि-विधानपूर्वक नन्दगोपकी पुत्रीका पाणिग्रहण किया ॥३३॥ गोविन्दाका दुबला-पतला शरीर बिजलीके समान चमकीला था, उसको कान्ति फूलती हुई सुवर्ण-कदलीकी कन्दलीके भीतरी भागक समान गौर वर्ण थी और स्वाभाविक गतिसे उठते हुए स्तन-युगलोंपर सुशोभित मोतियोंकी मालाकी प्रभासे उसका समीपवर्ती प्रदेश प्रकाशमान हो रहा था। ऐसी गोविन्दाको वह पद्मास्य बहुत भारी
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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