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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य ___ क्रमसे हाथीको जीतनेवाले जीवन्धर कुमारने अपने मनमें अपरिमित भक्ति धारणकर गुरुको नमस्कार किया और उनसे विद्या प्राप्त की ।। १०६ ॥ इस प्रकार महाकवि हरिचन्द्र विरचित श्री जीवन्धर चम्पू काव्यमें सरस्वतीलम्भ नामका प्रथम लम्भ समाप्त हुआ। द्वितीय लम्भ अथानन्तर जीवन्धर कुमार मित्रगणोंसे सुशोभित किसी अत्यन्त रमणीय विद्यालयमें पहुंचे। वहाँ उन्होंने, समस्त कलाओंके समूहने मानो दूसरी कलाओंमें लुब्ध होकर ही जिन्हें स्वयं अपना निवास-गृह बनाया था ऐसे सर्वश्रेष्ठ पण्डित आचार्य आर्यनन्दीसे समस्त कलाएं उस तरह सीखीं जिस तरह कि कोयल वसन्त ऋतुसे सुन्दर बोली सीखता है, और तरुण मयूर जिस तरह वर्षाकालसे केकावाणी सीखा करता है। _ आचार्य-रूपी सूर्यके दर्शनसे जीवन्धर कुमारका चित्त-रूपी कमल खिल उठा था और उससे कलासमूह रूपी मकरन्दका झरना भरने लगा था ॥ १॥ यद्यपि जीवन्धर कुमारको अन्य अनेक स्त्रियाँ लुभा लेना चाहती थीं तथापि उसका समस्त विद्यारूपी स्त्रियोंके साथ ही जो समागम हुआ था उसमें विनरहित गुरु-भक्तिने ही दूतीका काम किया था ॥२॥ जीवन्धररूपी चन्द्रमाने जब अपनी चौगुनी कलाओंके द्वारा पूर्णमासीके चन्द्रमाको पराजित कर दिया तब उसका शोभायमान अमृत जीवन्धरके वचनोंमें चला गया, कान्ति मुखमें चली गई, समस्त संसारको आनन्दित करनेकी शक्ति उसके शरीरमें आ गई, और स्वयं चन्द्रमा उनके चरणोंका नाखून बन गया ॥३॥ गुरुने जब देखा कि हमारी विद्यारूपी लता इसके हृदयरूपी आत्मबलमें खूब ही पल्लवित हुई है तब वे प्रीतिकी परम सीमाको प्राप्त हुए-उनके हर्षका ठिकाना नहीं रहा। प्रसन्न मनोवृत्तिके धारक आचार्य आर्यनन्दीने एक दिन एकान्त स्थानमें अपने पास बैठे हुए विद्यार्थी जीवन्धरसे इस प्रकार कहा हे शास्त्ररूपी समुद्रके पारगामी । हे अतिशय चतुर ! जीवन्धर ! तुम किसीका चरित्र सुनो जो कि कर्णमार्ग से चित्तमें प्रवेश कर दयारूपी नटीका नृत्य करानेमें सूत्रधारका काम देगा ॥ ४ ॥ विद्याधरोंके निवास क्षेत्रमें कोई एक ऐसा राजा अपना समय व्यतीत करता था जो कार्य तथा नाम दोनोंकी ही अपेक्षा लोकपालका तथा देवोंका स्वामी होकर भी (पक्षमें विद्वानोंका स्वामी होकर भी ) विद्याधर था ।। ५ ।। किसी एक दिन वह राजा उदयाचलकी शिखरको सूर्यके समान, सिंहासनको सुशोभित कर रहा था इतनेमें उसकी दृष्टि किसी मेघपर पड़ी। वह मेघ कभी अकाश रूपी समुद्र के शेवालके समान जान पड़ता था, कभी आकाशरूपी वनमें घूमते हुए हाथीके समान मालूम होता था और कभी देवलोकमें चढ़नेके लिए बनाई हुई सीढ़ियोंके नील पाषाणके समान प्रतिभासित हो रहा था। वह मेघ यद्यपि नील था तथापि राजा उसे अपने नेत्रोंसे पीत अर्थात् पीला (पक्षमें) अवलोकन कर रहा था । वह मेघ देखते देखते तत्काल विलीन हो गया सो मानो यही बतला रहा था कि उन्मत्त राजाओंका ऐश्वर्य क्षणभरमें नष्ट हो जाने वाला है। मेघको नष्ट हुआ १-चन्द्रमामें सोलह कलाएं होती हैं परन्तु जीवन्धर कुमार में ६४ कलाए थीं।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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