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________________ प्रथम लम्भ मालतीके फूल के समान कोमल शरीरलताको धारण करनेवाली जो गनी पहले नगरमें रूईके गद्दोंपर पड़े फूलोंकी बोड़ियोंका क्लेश नहीं सह सकती थी वही गनी आज वनके मध्यने डाभके विछौनेको ही बहुत बड़ा मानती थी । देखो, कर्मोंकी कैसी विचित्रता है । सतियों में शिरोमणि विजया रानी चूंकि नगरमें भी मानिनी वारतोषिता अर्थात् मानवती स्त्रियोंके समूहसे संतोषित रहती थी इसलिए वनमें भी उसका आहार नीवार ही रहा था इसमें आश्चये ही क्या था ? ।। ६८ ॥ इधर पुत्रकी प्राप्तिसे उत्पन्न हर्षसे भरे गन्धोकटने बहुत भारी उत्सव मनाना शुरू किया सो समस्त समीचीन धर्मकी परमकाष्ठा रूपी काष्ठको जलानेके लिए अंगारके समान काष्टाङ्गारने समझा कि गन्धोत्कट ये सब उत्सव मेरे राज्य मिलनेके उपलक्ष्यमें कर रहा है इसलिए उसने उसे राज्यकोषसे बहुत धन दिलाया। गन्धोत्कटने काष्ठाङ्गारसे मांग की कि आजके दिन इस नगरीमें जितने बालक उत्पन्न हुए हैं उन सबका पालन मेरे ही घर हो । वश्यपतिकी मांग स्वीकृतकर काष्ठाङ्गारने राजपुरी नगरी में उस दिन उत्पन्न हुए समस्त वालकोंको गन्धोत्कटके घर भिजवा दिया । उन सबके साथ यह अपने पुत्रका समान रूपसे पालन करने लगा। शोभायमान कलाओंसे सम्पन्न जीवन्धररूपी चन्द्रमा जैसा-जैसा बढ़ता जाता था वैसावैसा ही गन्धोत्कटका हर्ष-रूपी सागर वढ़ता जाता था ।। ६६ ॥ वालक जीवन्धर जब मट्टियाँ बाँधकर चित्त सोता था तब उस तालावकी शोभा धारण करता था जिसमें कि कमलकी दो बोड़ियाँ उठ रही थीं ॥ १०० ॥ वह वालक माता-पित,के आनन्दको बढ़ानेवाली जिस सुन्दर मुसकानको धारण करता था वह ऐसी जान पड़ती थी मानो मुखरूपी कमलसे मकरन्दकी धारा ही गिर रही हो, अथवा मुख-रूपी चन्द्रमाकी चाँदनी ही हो, अथवा कीर्तिका विकास ही हो अथवा मुखकी लक्ष्मीका हास्य ही हो ।। १०१॥ वह बालक माताका स्तन पीकर बार-बार दूधके कुरले उगल देता था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो कीर्तिकी तरङ्ग ही बिखर रहा हो । १०२ ।। कुछ ही दिनों में वह वालक मणियोंके निर्मल फर्सपर घुटनोंके बल चलने लगा था और अपनी ही परछाईको दूसरा बालक समझ ताड़न करता हुआ अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥ १०३ ॥ क्रम-क्रमसे वह बालक नखोंकी फलती हुई कान्ति-रूसी झरनास मुशोभित अतएव फूलोंसे आच्छादितके समान दिखनेवाले मगियोंके आंगनमें लड़खड़ाते पैरोंसे कोमलचरण-कमलोंकी डग फैलाता था ॥ १०४ ॥ इधर गन्धोत्कटकी स्त्री सुनन्दा भी गर्भवती हो गई जिससे ऐसी जान पड़ने लगी मानो जलसे भरी मेघमाला ही हो, रत्नोंसे भरी पृथिवी ही हो, फलसे भरी लता ही हो, अथवा तेजसे भरी पूर्व दिशा ही हो। क्रम-क्रमसे नौ मास बीत जानेपर उसने नन्दाव्य नामका पुत्र उत्पन्न किया। उत्तम भाई-चारेसे सुशोभित एवं तोतली बोलासे युक्त जीवन्धर अन्य पुत्रोंके साथ धूलिमें बड़े हर्षसे क्रीड़ा करता था ॥ १०५ ॥ तदनन्तर जब जीवन्धर पाँचवें वर्षमें चल रहा था तब प्रत्यक्ष कामदेवके समान जान पड़ता था। उसके वचन अब तक स्पष्ट हो गये थे और वह सिंहके बालकके समान सुशोभित हो रहा था। इसी समय उसने स्वयं आये हुए तथा समस्त कला-रूपी नदियोंके निकलनेके लिए पर्वतके समान दिखनेवाले आर्यनन्दी नामक आचार्यवर्यके समीप विघ्न-समूहका नाश करनेके लिए सिद्ध भगवान्की पूजाकर सिद्धमातृका नामसे प्रसिद्ध वर्णमालाका अभ्यास किया।
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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