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________________ प्रथम लम्भ २५१ भयंकर था । कहीं तो मुर्दोंको खानेके लिए निःशङ्क होकर इकट्ठे हुए कङ्क तथा काक आदि पक्षियोंसे व्याप्त था । कहीं गड़ी हुई शूलियोंपर चोर आदि अपराधी जीव चढ़ाये गये थे उन्हीं शूलियों के पास चिताएँ जल रही थीं। उनकी ज्वालाओं से संतप्त होनेके कारण उन चोर आदि अपराधियोंके कण्ठसे खूनकी बड़ी धारा निरन्तर निकलकर उन चिताओं पर पड़ रही थी जिससे चूं चूं शब्द होकर वहुत भारी धुआं उठ रहा था । कहीं चिताकी अग्निसे अधजलेसे मुर्देको खींचकर खण्ड-खण्डकर खानेवाली डाकिनियाँ कोलाहल कर रही थीं और कहीं तीक्ष्ण अग्निसे जलते हुए नर-कपालोंके चट चट शब्दसे भय उत्पन्न होता था । ऐसे श्मशानको देखते ही रानी मूर्च्छित हो गई । भाग्य की बात कि जिस प्रकार आकाश सूर्यको उत्पन्न करता है उसी प्रकार मूर्च्छाकी पराधीनतासे प्रसूतिकी पीड़ा को नहीं जाननेवाली रानीने दशम मासके उसी दिन पुत्र उत्पन्न किया ॥ ८५ ॥ उसी समय पुत्रको देखनेके लिए कोई एक देवी आई । वह देवी ऐसी जान पड़ती थी मानो पिताकी लक्ष्मी ही रूप धरकर आई हो अथवा पुत्रकी भाग्यसम्पदा ही शरीर धरकर आ पहुँची हो ॥ ८६ ॥ प्रत्येक दिशामें फैलनेवाले पुत्र के तेजके प्रभावसे वहाँका सघन अन्धकार एक क्षण ही में नष्ट हो गया था इसलिए उस देवीने जो मणिमय दीपक जलाये थे वे पुत्रकी कान्तिसे पराभूत होकर सिर्फ मङ्गलार्थ ही रह गये थे || ८७ ॥ पुत्रका मुखचन्द्र देखनेको रानीका शोकरूपी सागर वृद्धिको प्राप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि बन्धुजनोंकी समीपता सुख और दुःखको बढ़ानेवाली होती है ॥ ॥ विजया रानी राजा सत्यन्धरका स्मरणकर कर इस प्रकार विलाप कर रही थी - हा कामके समान रूपके धारक ! हा महागुण रूपी मणियोंके रत्नद्वीप ! हा मेरे मनरूपी मानसरोवर के राजहंस ! हा कामक्रीड़ामें चतुर ! हा मेरे प्राणस्वरूप ! तुम कहाँ जा रहे हो ! कहाँ जा रहे हो ! शोकरूपी विषकी तीव्रता से वह बीच-बीच में मूच्छित हो जाती थी । पासमें बैठी देवी भी सर्वश्रेष्ठ पुत्रकी उत्तम महिमाका वर्णन करने वाले वचनरूपी अमृतको सींच सींचकर उसकी मूर्च्छा दूर करती थी और सुवर्णके समान देदीप्यमान पुत्रके विभिन्न अङ्गों में जो मकरी आदिके अद्भुत चिह्न सुशोभित थे उन्हें दिखा दिखाकर वह उसे पुत्रकी महिमाका विश्वास कराती थी । उस समय रानी को सबसे बड़ी चिन्ता थी कि पुत्रका पालन-पोषण किस प्रकार होगा ? यह देख वह देवी पुत्रके पालन-पोषण सम्बन्धी चिन्तारूपी अन्धकारको दूर करने वाले वचन इस प्रकार कहने लगी । उसने कहा कि हे देवी! तुम पुत्रके पालन-पोषणकी चिन्ताको छोड़ो | जिस प्रकार चन्द्रमा चकोरको, आम्रका वृक्ष कोयलके बालकको और कमलिनियोंका समूह हंसको बढ़ाता है उसी प्रकार कोई मनुष्य तुम्हारे इस पुत्रको बढ़ावेगा ॥ ८६ ॥ उसी समय गन्धोत्कट नामका वैश्य अपने मृत पुत्रको उस श्मशान में छोड़ मुनिराजके वचनों का स्मरणकर दूसरे पुत्रको खोजता हुआ दिखाई दिया ॥ ६० ॥ उसे देखकर रानीने देवीके वचनोंको प्रमाण मान लिया सो ठीक ही है क्योंकि जो बात जैसी कही जाय उसीके अनुसार उपलब्धि होनेसे ही सब बातोंकी प्रामाणिकता - सचाई जानी जाती है ॥ ६१ ॥ तदनन्तर, विजया रानी चाहती थी कि हमारे हृदयरूपी सूर्यकान्तमणिसे जो पति के विरह-जन्य शोकानलकी ज्वालाएं उठ रही हैं मैं उन्हें पुत्रका सुन्दर मुखरूपी चन्द्रमा देख-देख कर शान्त करती रहूँगी परन्तु परिस्थिति यह आ पहुँची थी कि उसे अपने पुत्रसे भी जुड़ा होना पड़ रहा था अतः जिस प्रकार तालाचके जलसे निकाली मछली उसके बिना क्षण भर भी नहीं ठहरती उसी प्रकार वह रानी भी पुत्रके बिना क्षण भर भी ठहरनेके लिए यद्यपि असमर्थ थी तो भी
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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