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________________ जीवन्धरचम्पूकाव्य जब किसी तरह रानीको चेतना प्राप्त हुई तब राजा उसको निम्न प्रकार समझाने लगे सो ठीक ही है क्योंकि दुःखरूपी समुद्रसे पार होने के लिए ज्ञान ही जहाजके समान होता है ॥ ७७ ॥ उसने कहा कि यह सम्पत्ति बिजली के समान है, शरीर चञ्चल है, ऐश्वर्य जलके बबूले के समान है। और जवानी पहाड़ी नदी के समान है । इस तरह जो पदार्थ नश्वर है ही उसके प्रति शोक करना उचित नहीं है ॥ ७८ ॥ २५० जिस प्रकार संयोगको प्राप्त हुए संध्या और चन्द्रमाका वियोग अवश्य होता है उसी प्रकार परस्पर अनुरागसे भरे दम्पतियोंका भी भाग्यके वश वियोग अवश्य होता है ॥ ७६ ॥ 'यह मेरा भाई है और यह शत्रु है' ऐसा व्यवहार तो मात्र कल्पनारूपी कारीगर के द्वारा रचा हुआ है । वास्तविक बात यह है कि इस अनादि संसार में किसकी किसके साथ बन्धुता नहीं है ? और किसकी किसके साथ शत्रुता नहीं है ? ॥ ८० ॥ इस प्रकार राजाने अनेक वचन कहे अवश्य, परन्तु जिस प्रकार अत्यन्त तपे हुए लोहे के ऊपर पड़ी जलकी धारा उसे गीला नहीं कर पाती है उसी प्रकार राजाके वचन भी शोकाग्निकी ज्वालाओंसे आलीढ रानीके हृदय में कुछ भी आर्द्रता नहीं ला सके और जली हुई भूमिमें बोये ये वीजके समान निष्फल हो गये । निदान, जब राजाको कोई उपाय न सूझा तो उसने गर्भवती कमलनयनी रानीको मयूर - यन्त्रमें बैठाकर आकाशमें घुमा दिया सो बड़े खेदकी बात है कि दुष्ट कर्मोंका विपाक ऐसा दुःखकारी होता है ॥ ८१ ॥ अथानन्तर जब मयूर-यन्त्र आकाशमें चढ़ गया तब जिस प्रकार सिंह पर्वतकी गुफासे बाहर निकलता है उसी प्रकार अपने परिवार से रहित राजा सत्यन्धर अकेला ही महलसे निकलकर युद्ध के मैदान में उतरा । उस समय उसका हृदय धैर्यसे भरा हुआ था । वहाँ जब उसने देखा कि काष्टाङ्गार मन्त्री, शत्रु बनकर युद्धके लिए तैयार खड़ा है तब उसका चित्त क्रोधसे भड़क उठा फलतः वह भी युद्धके लिए तैयार हो गया । जिस प्रकार तीक्ष्ण आँधी मेघोंको तितर-बितर कर देती है उसी प्रकार सिंहके समान पराक्रमी राजा सत्यन्धरने काष्ठाङ्गारके योद्धाओंको तितर-बितर कर दिया ॥ ८२ ॥ तदनन्तर युद्धके मैदान रूपी आकाशमें सूर्य के समान चमकनेवाले एवं विजयलक्ष्मी के प्राणपति धीरवीर राजाने काष्टाङ्गारके सलाहगीर मन्त्रीको जीत लिया ॥ ८३ ॥ तत्पश्चात् जब काष्ठाङ्गारने युद्ध में अपने मन्त्रीके पराजयकी बात सुनी तब वह भी बढ़ते हुए क्रोध से भौहोंको टेढ़ी करता हुआ हाथियों, घोड़ों और पैदल सिपाहियोंसे चित्र-विचित्र सेना साथ लेकर राजाके सामने आकर अनेक प्रकारसे युद्ध करने लगा । इसी बीच राजा सत्यन्धरके हृदयमें वैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे उसने प्राणियोंकी हिंसासे विरत होकर संन्यास ले लिया । तदनन्तर जिस प्रकार कोई मित्र अपने सम्बन्धीको स्वस्थता अर्थात् नीरोगता प्राप्त करा देता है उसी प्रकार काष्टाङ्गारने भी राजा सत्यन्धरको स्वःस्थता अर्थात् देवपर्याय प्राप्त करा दी - मार डाला । उसी क्षण राजा सत्यन्धर स्वर्गको प्राप्त हुआ, राजाका हत्यारा काष्ठाङ्गार राज्यलक्ष्मीको प्राप्त हुआ, भेरीका शब्द रानीके कानोंको प्राप्त हुआ, नगरवासी शोकको प्राप्त हुए, पण्डितजन स्त्रियोंसे विरक्त-भावको प्राप्त हुए और युद्ध शान्तिको प्राप्त हुआ । कवि कहते हैं कि उस समय ये सब कार्य एक साथ हुए थे ॥ ८४ ॥ तदनन्तर भ्रमण से रहित उस मयूर यन्त्रने धीरे-धीरे आकाशसे उतरकर पतिके शोकरूपी अग्निसे जलती हुई रानीको श्मशान भूमिमें जा गिराया ॥ ८५ ॥ वह श्मशान बड़ा ही
SR No.010390
Book TitleJivandhar Champu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1958
Total Pages406
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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