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________________ ७९२ जीवाभिगमपूर्व लष्टाघृष्टामृष्टानीरजानिर्मला निष्पका निष्पवटच्छाया सप्रमा सश्रीका समरीचा सोद्योता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा । सा खलु जगती एकेन जालकटकेन सर्वतः समंतात संपरिक्षिप्ता ॥ स खल्ल जालकटकः खलु अईयोजन सुर्ध्वमुच्चत्वेन, पञ्चधनुः शतानि विष्कम्मेण, सर्वरत्नमयोऽन्छ: इलक्षणः लष्टो. घृठोसृष्टो नीरजाः निर्मलो निष्कटच्छायः सप्रमा सश्रीकः समरीचः सोद्योतः पासादीयो दर्शनीयोऽभिरूपः पतिरूपः ॥० ५१॥ ____टीका-'कहिणं भवे । दीरसमुद्दा' कुत्र- कस्मिन् स्थाने खल भदन्त ! द्वीपसमुद्राः, द्वीपाः समुद्राश्च सन्तीति द्वीपसमुद्राणामवस्थानविषयकः प्रथमः प्रश्नः, 'देवइयाणं भंते ! दीवसमुद्दा' कियन्तः कियत्संख्यकाः खल मदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता इति द्वीपसमुद्राणां संख्याविषयको द्वितीयः प्रश्ना, के 'महालयाणं भंते ! दीवसमुदा' कियन्महाळ्या द्वीपसमुद्राः कियान महानालयं आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो येषां ते कियन्महाळयाः किं प्रमाणमहालयाः द्वीपसमुद्रा इति ज्योतिकदेव तिर्थग्लोक में है अतः तिर्यग्लोक के प्रस्ताव से अथ सूत्रकार द्वीप एवं समुद्र के सम्बन्ध में वक्तव्यता का कथन करते है। 'कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा पन्नत्ता' इत्यादि । टीकार्थ-गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'कहिण भंते दीवसमुद्दा पण्णत्ता' हे भदन्त ! द्वीप और समुद्र किस स्थान पर कहे गये है ? अर्थात् द्वीप समुद्रों का अवस्थान कहाँ पर है । इस प्रकार से यह प्रश्न गौतमका द्वीप और समुद्रों के अवस्थान के विषय में है। 'केवड्या णं भंते ! दीवलमुद्दा वे द्वीप समुद्र हे भदन्त ! कितने है ? यह प्रश्न उनकी संख्या के विषय में है। 'के महालया णं भंते ! दीव मुद्दा' हे भदन्त ? वे द्वीपसमुद्र कितने-बडे-विशाल है ऐसा यह प्रश्न उनकी आयामादि તિષ્કદેવ તિલેકમાં છે, તેથી તિર્યલેકના પ્રસ્તાવથી હવે સૂત્રક ૨ द्वीप भने समुद्रना समन्धमा ४थन ४२ताहेछ 'कहि ण' भ ते ! त्यादि 'कहि णं भंते ! दीवेसमुद्दा पण्णचा' त्यादि Aथ-श्रीगीतभस्वामी प्रसुश्री२ मे ५७यु छ है 'कहि णं भंते ! दीवसमुदा पण्णत्ता' सन्दीप भने समुद्री या स्थान ५२ ४ा छ १ अर्थात् દ્વીપસમુદ્રોની સ્થિતિ કયાં આવેલ છે? આ રીતને આ પ્રશ્ન શ્રીગૌતમસ્વામીએ द्वीप भने समुद्रीन अवस्थान समयमा पूछे छे. 'केवइया णं भाते ! दीव समुद्दा' सभवन से द्वीप समुद्री टखा छ ? या प्रश्न द्वीप समुद्रानी सध्यान समयमा डेत छे. 'के महालया णं मंते ! दीवसमुदा' हे सगन् તે દ્વીપ સમુદ્રો કેટલા મેટા વિશાળ પ્રમાણુના છે ? એ પ્રમાણેને આ પ્રશ્ન તેના
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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