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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ पृ.७ सप्तापि पृथिव्या लोकस्पर्शिन्यो नवैति ६९ प्रभायाः पृथिव्याः पूर्वादि चतुर्विनवति चरमान्तात् 'चउद्दसहिं जोयणेहिं चतु. दशमियाँजनैः 'अवाहाए लोयते पनत्ते' अबाधया लोशान्तः प्रज्ञप्तः चतुर्दशयोजनात् परखोऽलोकाकाशो भवतीति भावः । 'पंचमाए' पञ्चम्याः धूमनभायाः पृथि. व्याः पूर्वादि चतुर्दिगवतिचरमान्यात् 'तिभागणेहिं पनरसहिं जोयणेहि' त्रिभागौन स्तृतीय भागहीनः पञ्चदशभिः योजनेः 'अबाहाए' बाध्या 'लोयंते' लोकान्तः 'पनत्ते' प्रज्ञप्तः 'छट्ठीए सतिभागेहिं पन्नरसहि जोयणेहि' षष्ट्याः प्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमःप्रभा की पूर्व दिशा के चरमान्त से कितनी दूर लोक का अन्त रूप-अलोक है ? तो इसके उत्तर में क्रमशः ऐसा आलापक कहना चाहिये-हे गौतम ! 'पंचपाए चउद्दसहि जोय. णेहि अबाहाए लोयते पणत्ते' पङ्कप्रभा की पूर्व दिशा के चरक्षान्त से चौदह योजन से आगे लोक का अन्त है इसी प्रकार से शेष दक्षिण पश्चिम उत्तर दिशाओं के चरमान्त से चौदह योजल आगे लोक का अन्त है ऐसा जानना चाहिये। 'पंचमाए' पांचवी पृथिवी जो धूमप्रभा है उसके पूर्व दिग्भागवर्ती घरमान्त से कितनी दूर पर लोक का अन्त हैं ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते है-हे गौतम् ! 'तिभागूणेहिं पारसहि जोयणे हि अबाधाए लोयंते पनत्ते पांचवी पृथिवी जो धूमप्रभा है उसके पूर्व दिग्भागवर्ती एवं दक्षिण पश्चिम उत्तर दिग्वती चरमान्त मे तीसरा भाग कम पन्द्रह योजलों के आगे लोक का अन्त होता है। 'छट्ठीए सतिभागेहिं पन्नरसहि जोयणेहि अबाधाए लोयंते पन्नत्ते छठी विगरे पृथ्वीयानु अपात मताव छे. 'पंकप्पभाए' त्याहि समपन् પકભા. ધૂમપ્રભા, અને તમસ્તમપ્રભાની પૂર્વદિશાના ચરમાંથી કેટલે દૂર લેકના અન્ત રૂપ અલોક છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ક્રમશ એ અલાપક ह मे भीतम ! 'पंकप्पभाए चउहसहि जोयणेहि अवाहाए लोयते पण्णत्ते' ५४मानी पूनियन य२मा तथा यौह योन पछी बनी मत છે. એ જ પ્રમાણે બાકીની દક્ષિણ, પશ્ચિમ ઉત્તર દિશાઓના ચરમાન્તથી ચૌદ योन पछी ने। मत छे. तम सभा 'पंचमाए' पांयमी २ धूमप्रमा પૃથ્વી છે, તેની પૂર્વ દિશામાં રહેલ ચરમાન્તથી કેટલે દૂર લેકને અંત કહ્યો छ १ २प्रश्न उत्तर प्रभु ४ छ ७ गौतम ! 'तिभागूणेहि पन्नरसहि जोयणेहि अबाधाए लोय ते पन्नत्ते' पांयमी २ धूमयमा पृथ्त्री छे, तेनी દિશામાં રહેલ અને દક્ષિણ, પશ્ચિમ, ઉત્તર વિગેરે દિશામાં આવેલ ચરમાન્ત થી ત્રીજા ભાગકમ પંદર જન પછી લેકને અંત કહ્યો છે.
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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