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________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.उ.३ सू.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् ___ ६८९ षट्पञ्चाशत् सन्ति तेषु एकोरुकादयोऽष्टाविंशतिर्दक्षिणस्यां दिशि तत्र टाविंशतिः रेव, उत्तरस्यां दिशीत्यत्र दक्षिणा दिस्थितान्तरद्वीपानां प्रकरण मित्यतो दाक्षिणा त्याना मित्युक्तम्, हयर्णिमनुष्याणाम्, 'हयकण्ण दीवे नामं दीवे पण्णत्ते' दयकर्ण द्वीपो नामद्वीप: यज्ञप्तः, हे भदन्त ! हयकर्णमनुष्याणां हयकर्णद्वोपो नाम निवासस्थानं कुत्र कथित इति पश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे नौतम ! 'एगोरूयदीवस्स' एकोरुनानक द्वीप 'उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ' उत्तरपौरस्त्याव-उत्तरपूर्व-ईशानकोणे विद्यमान व चरमान्तात् 'लवणसमुद्द चलारि जोयणसयाई ओगाहित्ता' लवणसमुद्रस्यारि योजनशतानि अबाह्य--व्यतिक्रस्य "एत्थ णं दाहिणिल्लाणं इयकण्णमणुस्साणं' अत्र खलु दाक्षिणात्यानां हमकर्णश्नु. व्याणाम् हयाण्ण दीवे णामं दीवे पणत्ते' 'हयक्षद्वीपो नामद्वीप प्रज्ञप्त:-कथितः, दक्षिण दिशा में और वैसे ही अठाईस उत्तर दिशा में होते है यहां दक्षिण दिशा के अन्तर ही का प्रकरण होने से 'दाहिणिल्लाण' ऐसा कहा है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहले हैं-'गोयमा ! एउगोरुष दीवस उत्तर पुरथिमिल्लाओ चरिमंलाओ लमशालाई सत्तारि जोयण लयाई ओगा. हित्ता एत्थणं दाहिल्लिाणं हयाण्णमणुरुशाणं हथकपणदीवे णासंदीवे पण्णत्ते' एको रुक द्वीप के ईशान कोने में विद्यमान चरमान्त ले लक्षण समुद्र में चार की योजना चलने पर इसी स्थान में दक्षिण दिशा के हयकर्ण मनुष्यों का जयकर्ण नामका द्वीप है । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि एकोहावीप के पूर्व घरमान्त से ईशान दिशा में लवण समुद्र में चारसी योजन जाने पर यहां क्षुल्ल हिमंत पर्व की दाढा आती है तो इस दादा के ऊपर जम्बृद्धीपक्षी वेदिका के अला भाग से चार हौ योजन के अन्त में दाक्षिणात्य शिक्षण मनुष्यों का यह यकणं नामका द्वीप कहा गया है। यह द्वीप की 'चत्तारि जोशणसी દક્ષિણ દિશામાં અને બીજા ૨૮ અષ્ઠયાવીસ ઉત્તર દિશામાં હોય છે અહિયાં हक्षा हिशान तर दीयानु प्र४२६ पाथी 'दाहिणिल्लाणं' के प्रमाणे ४ . २॥ प्रश्नना उत्तम प्रभुश्री गौतमत्वामीने हे छ 'गोयमा ! एगोरुय दीवस्स उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवगसमुदै चत्ता र जोगणसयाई ओगाहित्ता एत्थ ण दाहिणिल्लाणं हयकण्णमणुम्माण हयकण्ण दीवे जाम दीये पण्णत्ते' ठी३४ दीपना शान भूयामा मावस यरमन्तधी ale समुद्रमा ચાર જન સુધી જવાથી એજ થાનપર દક્ષિણ દિશા દાકર્ણ મનુ એને હકણું નામ હિપ આવેલ છે આ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે એકરૂક દ્વીપના પૂર્વ ચરમાન્તથી ઇશાન દિશામાં લવણ સમુદ્રમાં ચાર જન જવાથી ત્યાં સુલ હિમવંત मी० ८७
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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