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________________ ६६८ जीवामिगमसूत्रे आरोपितो वाणाकारो मुक्तश्च जाज्वल्यमानाऽह्योल्कादण्डरूपः, परशरीरे संक्रा वो नागपाशत्वं प्राप्नोति । एवमेवाग्रे वाणान्तराणामपि महात्म्यं ज्ञातव्यम् । 'खे बाणाई वा' खे बाण इति वा खे वाणः आकाशगामीवाणः, आकाशगमनशक्तिमचाद, 'तामसवाणा वा' तामसवाण इति वा सकलरणव्यापि महान्धकार परि मनरूपशक्तिमात् । 'नो इणट्टे समट्टे' नायमर्थः समर्थः यतः 'ववगयवेराणुबंधाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणउसो !' हे श्रमणायुष्मन् ते एकोरुकद्वीपगता मनुजगणा व्यपतचैरानुबन्धाः प्रज्ञप्तास्ततो न तेपां महायुद्धादि प्रयोजनमिति । 'अस्थि भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त । एकोरुकद्वीपे द्वीपे दुग्भूइयाइ बा' दुर्भूतिकमिति वा अशिवस 'कुळरोगाइ वा, कुछरोग इति वा - कुल 1 होता हुआ शीघ्र उल्कादण्ड रूप हो जाता है और शत्रु के शरीर में प्रविष्ट होकर नाग रूप में परिणत हो जाता है और फिर नागपाश वनकर उसके शरीर को बांध लेता है इसी प्रकार दूसरे दाणों का भी माहात्म्य जान लेना चाहिये | 'खे वाणाइ वा' आकाश गामी वाणों का उपयोग किया जाता है क्या ? ' तामसवाणाइ वा' तामस वाणों का समस्त युद्ध में अन्धकार कर देने वाले वाणों का उपयोग किया जाता है क्या ? ...इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'णो इणट्टे समट्ठे' यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वहां महायुद्ध आदि होते नहीं है क्योकि 'aare वेणुबंधाणं ते मणुषगणा पण्णत्ता नमणाउसो' उनके परस्पर में वैरानुबन्ध नहीं होता है इसलिये उनके महायुद्ध आदि का प्रयोजन ही नहीं होता है | 'अस्थि णं भंते' एगोरुय दीवे दीवे' हे भदन्त ? एकोरुक द्वीप में 'दुभूइयाइ वा' दुर्भूतिक वहाँ विभूति नष्ट हो जाय ऐसा अशिव होता ત્યારે તે જાજ્વલ્યમાન થઈને એકદમ ઉકા દંડ રૂપ બની જાય છે, અને શત્રુઓના શરીરમાં પ્રવેશીને નાગ રૂપે પરિણમી જાય છે. અને પછી નાગ પાશ રૂપ મનીને તેના શરીરને માંધી લે છે. આજ પ્રમાણે ખીજા માથેાનુ महात्म्य या सम सेवु लेखे खे वाणाइ वा' माउशमां गमन उरवावाजा मोनो उपयोग वामां आवे छे ? ' तामसबाणाइवा' तामस मोनो मेट સઘળી યુદ્ધ ભૂમીમાં અધારૂ' કરવાવાળા માણેાના ઉપયેાગ કરવામાં આવે છે ? आा अश्नना उत्तरसां अलुश्री गौतमस्वार्थाने हे छे ! 'णो इणट्टे समट्टे' हे ગૌતમ આ કથન ખરાખર નથી. અર્થાત્ ત્યાં મહાયુદ્ધ વિગેરે થતા નથી. કારણુ 'ववयवेराणु धाणं ये मणुयगणा पण्णत्ता तेथेाने परस्परमां वैरानुबंध थतेो नथी, तेथील तेखाने महायुद्ध विगेरेनी ४३२ ४ होती नथी. 'अस्थि णं भवे एगोरुय दीवे दीवे' हे भगवन् मे३४ द्वीपमा 'दुम्भूइयाइवा' हुभूति अर्थात्
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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