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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३. उ. ३ सू.४१ ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६५९ 'क्वालिचा वा' यक्षादीप्तकमिति आकाश दृश्यमानमग्निसहित पिशाचरूपम् | 'धूमियाइ वा' धूमिकेति वा' धूमिका नाम या रूक्षा प्रविरळा धूमामा दृश्यते ! 'महियाइ वा 'महिकेति वा महिका या स्निग्धा घनाघनत्वादेव भूमी घसारिता तृणाद्यग्रस्थित जलकणदर्शनत उपलक्ष्यमाणा धूमासा । 'रउग्वाह वा' रजउद्धात इति वा रजसा सूक्ष्मधूलिकया दिशां व्याप्तत्वस् 'भद्य रजस्वलादिशः' लोके कथ्यते । 'चंदोवरागाइ वा' चन्द्रोपरागश्चन्द्रग्रहणमिति वा 'सरोवरागेइ वा' सूर्योपरागः सूर्यग्रहणमिति वा । 'चंद्रपरिवे साइवा' चन्द्रपरिवेष इवि वा 'सुरपरिवेसाड़ वा' सूर्यपरिवेष इति वा' परिवेषो नाम चन्द्रसूर्य योश्चतुर्दिक्षु गोलाकार परिमण्डलम् | 'पडिचंदाइ वा' प्रतिचन्द्र इति वा उत्पातादि सूचको द्वितीयश्चन्द्रः मतिचन्द्रः चन्द्रसमीपे यदा प्रतिपदा आदि तीन दिनों में होता है प्रतिपदा द्वितीया और तृतीया, इन तीन दिनों में प्रायः संध्या विभाग दुर्लक्ष्य हो जाता है । यक्षादीस - आकाश में दिखने वाली अग्नि लहित पिशाच का रूप, धूमिका- रुक्ष - बिनाजलकण की छुट्टी- छुटी धूआं जैसी होता है, महिकास्निग्ध घन, तथा घन होनेसे ही भूमि पर फैली हुई तृण के अग्र भाग में जलकणों के देखने से जानी जाती हुई धूआं जैली होती है। रजउद्धात सूक्ष्म धूलि से दिशाओं का भर जाना, उस समय दिशा रजस्वला है, ऐसा लोक कहते हैं । चन्द्रोपराग - चन्द्र ग्रहण, सूर्यो पराग सूर्य ग्रहण, चन्द्रपरिवेष - चन्द्र के चारों तरफ होने वाला . गोलाकार परिमण्डल-गोल कुंडाला, एवं सूर्यपरिवेष सूर्य के चारों तरफ होने वाला परिमण्डल प्रतिचन्द्र एक चन्द्र से दूसरा चन्द्र दिखना, एवं प्रति सूर्य-दो सूर्यो का दिखना, इन्द्र धनुष-धनुष के आकार का છે. એટલે કે પડવા, ખીજ અને ત્રીજ81 ત્રણ દિવસમાં ઘણે ભાગે સ ધ્યા વિભાગ દુર્લક્ષ્ય થઈ જાય છે, યક્ષાદીસ-માકાશમાં દેખાવાવાળા અગ્નિ સહિત પિશાચનું રૂપ ભૂમિકા રૂક્ષ પાણિના બિંદુ શિવાય શ્રૃતિ ટિ આકળ જેવી होय छे. महिला - स्निग्ध, धन, तथा धन होवाथीन भीन पर सायली ઘાસના અગ્રભાગમાં પાણીના બિંદુઆના જોવાથી જાણવામાં આવેલ વાડા જેવી હાય છે. રજઉદ્ઘાત થી ધૂળથી દિશાએ ભરાઈ જવી. તે સમયે દિશા રજસ્વલા છે તેમ લેકા કહે છે. ચ ંદપરાગ-ચંદ્રગ્રહણુ, સૂર્યેૉંપરાગ સૂર્ય મહેસુ, ચંદ્ર પરિવેષ ચદ્રની ચારે બાજુ થવાવાળુ' ગાળ આકારનું પરિभौंडस, अर्थात्, गोफ डुडाणु', 'सूर्यपरिवेप' सूर्यनी यारे भानु थवावाणु परि
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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