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________________ - - - - - प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ २.३६ एकोहकसरीपस्थितनुमगणवर्णनम् ५४३. दाममालोज्वलम् वरकुसुपदाम्नां माला:-श्रेयस्वामिरुज्वलम् अतिशयितशोभाकारकम् 'भासंतमुक्कपुप्फ पुंजोवयारकलिए' भासमानमुक्त पुष्पपुञ्जोपचारकलितम् विकासितवया मनोहारत्या भासमानो दीप्यमानो मुक्तो यः पुष्पपुखोपचारस्तेन फलितं युक्तम् 'विरल्लिय विचित्तमल्लसिरिदाममल्लसिरि समुदयप्पगम्भे' विरल्लित विचित्र माल्य श्रीदाम माल्यश्री समुदय प्रगलमम्, तत्र विरल्लितानि-- विस्तारितानि विचित्राणि यानि माल्यानि श्रीदाममाल्यानि च-ग्रथित पुष्पमालाः तेषां या श्रीसमुदायः-- शोमामकर्षः तेन प्रगल्भम-अतीव परिपुष्टम् 'गंथिमवेदिमरिमसंघाइमेण मल्लेण छैयसिप्पिविभागरइएण' ग्रन्थिमवेष्टिम पूरिमसंघातिमेन माल्येन छेशिल्पिविभागरचितेन, तत्र ग्रन्थितं कौशलातिशयात्- पुष्पाणां प्रन्थिसमुदायेन निसितम्, सूत्रेण प्रथितं चा वेष्टिमम्-पुष्पसमुदायेन वेष्टयित्वा वेष्टयित्वा यनिर्मित तत् संघातिमम्-संघातेन समूहेन निर्मितम्, यत् पुष्पाणां परस्परतोनाल संघातेन संघातितम् पुष्पं पुष्पेण परस्परं नालपदेशेन संयोज्य संयोज्य निर्मितम् । एवं विधेन चतुष्प्रकारकेण माल्येन माल्या कीदृशेन ? इत्याह-छेकश्रेष्ठ पुष्पों की सुन्दर २, मालाओं से अतिशय रूप में शोभित होता है, 'भासंत मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए' तथा-विकसित होने से मनोहर बने हुए दीप्यमान ऐसे इधर उधर पडे पुष्प पुंजो से वह जैसा सुहावना लगता है 'विरल्लिय विचित्त सिरिदाममल्ल सिरि समुदयप्पगम्भे' तथा जैसा वह विरल पृथक पृथक् रूप से स्थापित की हुई विविध प्रकार की गूथी हुई मालाभों की शोभा के प्रकर्ष से जनमन हर्षक होता है. 'गंथिम वेढिम परिमसंघाइमेणं मल्लेण छेगसिपि विभागरइएणं सन्द ओचेच समणुबद्धे' ग्रन्थित जो चातुर्यता से फूलों की परस्पर गांठों से गूंथी हुई अथवा सूत्र से गूथी गई होती है-वेष्टित आपस में एक दूसरी माला के साथ तरके ऊपर तर करके धुण्यानी हर सु२ माणासाथी सत्यत मायमान हाय छ 'भासतमुक्क पुष्फपुजोवयारकलिए' तथा विसित हावाथी ते अत्यंत शलायमान मागे छे. "विरलियविचित्तसिरिदाममल्लसिरिसमुदयप्पगमे' तथा विस र જુદા જુદા સ્થાપિત કરવામાં આવેલ અને અનેક પ્રકારથી ગુંથવામાં આવેલ भागासोनी शासाना थी न भनने हुष 6 छे 'गंथिम वेदिह पूरिमसंधाइमेण' मल्लेण छेगसिपिविभागरइएणं सव्वओ चेव समवद्ध' थिम એટલે કે ચાતુર્યતાથી કુલની પરપર ગાંઠેથી ગુંથવામાં આવેલ અથવા દોરાથી ગૂંથવામાં આવેલ હોય છે વેષ્ટિત પરસ્પર એક બીજી માળાઓની સાથે ઉપર નીચે કરીને ગૂંથેલ હોય છે. પૂરતિ કોઈ આકૃતિ વિશેષના છિદ્રોમાં રૂપ
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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