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________________ जीवामिगमत्रे Par ૨૮૦ काम् । 'निदुरं' निष्ठुराम्-अशक्यमतीकाराम् । 'चडे' चण्डाम् रौद्राध्यवसायहेतुत्वात् रुद्राम् 'वि' शेत्राम् - अनिशानितीम् दुवख' दुःखाम्- दुःखरूपाम् 'दुग्ग' दुर्गान् दुर्लभ्याम् अव 'र' दुरधिमवाम्-दुःखेन सोढुं योग्याम् एतादृशों वेदनां ते नारका अनुभवन्तीति पूर्वेणान्वयः एवं जाव धूरप्पमा' एवं' यादद् धूमायां पृथिव्याम् एवं नारदेन शर्कराममा वालुकाममा जनक होती है उसका इलाज - प्रतिकार नहीं हो सकता है इसलिये यह निष्ठुर होती है उसके होने पर नारक जीवों के परिणामों में अत्य न्त रुद्रताआजाती है इस कारण यह पत्र होनी है 'तिचं' स वेदना से अधिक और कोई वेदना नहीं है- वेदना की पराकाष्ठा रूप होती है - इसलिये इसे तीव्र कहा गया है 'क्वं' यह वेदना सुख के ऐश से भी वर्जित होती है - इसमें केवल दुःख का ही साम्राज्य अत्यन्त दुःख भरा रहता है, अथवा यह स्वयं कृख रूप होती है इसलिये इसे दुःख कहा गहा है 'दुग्गं' इससे जब तक जीव नरक में रहता है तब तक छूट नहीं सकता है अत: इसे दुर्ग दुर्लय कहा गया है, 'दुरहि यासं' इसे नारक जीव प्रसन्न जिस से नहीं भोगते हैं किन्तु वडी कठिनता के साथ दुरध्यवसाय पूर्वक भोगते है यह दुख से सहन करने योग्य होने से दुरधिमा है ऐसे विशेषणों वाली वेदना को वे नारक जीव आयु पर्यन्तवन करते रहते हैं एवं जाव धूमप्प भाए' છે. તેના ઉપાય અર્થાત્ પ્રતીકાર થઇ શકતેા નથી. તેથી તે નિષ્ઠુર હોય છે. તે હાવાથી નારક જીવાના પરિણામમાં અત્યંત રૂદ્રતા આવી જાય છે તેથી ते थंड हवाय 'तिव्व' मा बेहनाथी भोटी ओ देहना होती नभी. अर्थात् मा बेहनानी पराठा ३५ य हे. तेथी तेने तीव्र अड़ी छे. "दुक्खं" આ વેદના સુખના લેશથી પણુ વર્જીત હાય છે. આમાં કેવળ દુઃખનું જ સામ્ર'જપ ભયુ` હોય છે. અથવા આ વેદના સ્વય' દુઃખ રૂપ હાય છે. તેથી तेने हुः मे प्रभा डे हे 'दुर्गा' तेथी ल्यां सुधी व नरम्भां रहे थे, ત્યાં સુધી છૂટી શકતા નથી. તેથી તેને દુ` અર્થાત્ દુ ય કહેલ છે 'दुरहियास " ना२४ वे प्रसन्न वित्तथा तेने लोगवता नथी, परंतु घाटी ઋણુાઇથી દુરધ્યવસાય પૂર્વક ભાગવે છે. તેથી તે દુઃખથી સહન કરવા ચેાગ્ય હાવાથી ‘દુષિસહય’ છે. આવા વિશેષશેાવાળી વેદનાને એ નારક જીવા આ ચુખ્ય સમાપ્ત થતાં સુધી ત્યાં રહીને સહન કરતા રડે છે. 'एवं नाव धूमपभाए' આજ પ્રમાણે નારક જીવે, શકરાપ્રભા,
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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