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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१ उ.२ सु. २० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम् २७९ मिनन्तः 'वेषणं उदीरेति' वेदनामुदीरयन्ति, कीदृशीं वेदनामुदीरयन्ति तत्राह'उज्जलं' इत्यादि, 'उज्जलं' उज्ज्वलाम्- दुःखरूपल्या जाज्वल्यमानाम् सुखले शेनापि वर्जितामित्यर्थः पुनः किंभूतां तत्राह - 'पगाढां' प्रगाढाम् प्रकर्षेण प्रदेश व्यडिया अतीव समवगाढम् 'कर्कशाम् कर्कशामिव कर्कशाम् - कठोराम, अयं भावः यथा कर्कशः पाषाण संघर्षः शरीरस्य खण्डानि चोटयन्ति एवमात्ममदेशान चटयन्तीव वेदना संजायते सा कर्कशा हां फर्कशास् 'ड्यं' कटुकाम् षटुकामित्र काम्, पित्तप्रकोप परिकलितवपुषो रोहिणीं वटुकद्रव्- मिवो भुज्यमानाम् अतिशयेनापीतिजनिकामिति । 'फरुसं' परूपां मनसोऽतीव रूक्षताजनिउदीरेति' एक अनेक रूपों की विकुर्वणा करके ये आपस में एकदूसरे के रूपों के साथ उसे लड़ाकर शरीर में चोट पहुंचा कर वेदना उत्पन करते हैं वह वेदना 'उज्जलं' सुख के लेश से भी वर्जित होने के कारण अत्यन्त दुःख रूप से उन्हें जलाती रहती है 'पगाढ' मर्म प्रदेशों में प्रवेश कर के समस्त शरीर में व्यापक हो जाती है अतः वह प्रत्येक प्रदेश में समवगाढ होती है 'ककस' बहुत अधिक कठोर होती हैजैसे कर्कशपाषाणखण्ड का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड देता है उसी तरह से यह वेदना भी आरन प्रदेशों को तोड सी देती है, अतः उसे यहां कर्कश कहा गया है। 'कडुयं कटुक यह वेदना इसलिये कही गई है कि यह पित्त प्रकोप वाले व्यक्ति को जैसे खाई गई रोहिणी - औषधि विशेष - अप्रीति जनक होती है उसी प्रकार से वह वेदना अप्रीति जनक होती है 'फरुसं' वह नारकों के मन में अतीव रूक्षता की अण्णमणस्व कार्य अभिहणमाणा अभिद्दणमाणा वेयणं उदीरेति' अने इयोनी વિકા કરીને તેઓ પરસ્પરમાં એક બીજાના રૂપાની સાથે તેને वडावीने शरीरमां न पहाडीने बेहना उत्पन्न करे छे. ते वेहना 'उज्जलं ' સુખનાલેશથી પણુ રહિત હૈાવાના કારણે અત્યંત દુઃખ રૂપે તેને माती रहे छे 'पगाढां' भर्भ प्रदेशोभां प्रवेश रीने समस्त शरीरमां व्याप्त छे. 'ककस' धली वधारे उठोर होय छे. नेम : श पत्थरना टुडाना સ'ઘર્ષ શરીરના અવયવને તેડી નાખે છે, એજ પ્રમાણે તે વેદના પણ आत्मप्रदेशाने तोडी नाचे छे. तेथा अडियां तेने आहेत हे 'कडुयं' તે વેદનાને કટુ એ માટે કહી છે કે તે પિત્તપ્રકોપ વાળી વ્યક્તિને ખાવામાં આવેલ રે.હિણી (વનસ્પતિ વિશેષ) :અપ્રીતિકારક હાય છે, એવી જ તે વેદના प्रीतिभारम् होय छे. 'फरुस' ते नारोना भनभां अत्यंत ३क्षता ४न होय
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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