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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् २१७ यान्तीति । 'उरगा पुण पंचमि जति पञ्चमी धूमप्रभाख्यां पृथिवीमेव यावद् उरगा यान्ति इति । 'छष्टिं च इत्थियाओ' षष्ठी तमाममाख्यां पृथिवीमेव यावत् खियः स्त्रीरत्नाद्या महाराध्यबसायिन्यो गच्छन्तीति । 'मच्छामणुयाय सत्तमि जंलि सच्ची समस्तमां पृथिवीं यावदू मत्स्या मनुजा अति कराध्यवसा. यिनो महापापकारिणो यान्ति-गच्छन्तीति गाथार्थः । 'जाव' इति यावत्,यावस्प देन षष्ठी पृथिवीपर्यन्तं यत्नममा पृथिवीषदेवालापकाः कर्तव्याः, अधः सप्तम्या आलापकं तु सुत्रकार सममेव क्ष्यति । तथाहि-सकर एमाए णं भंते ! पुढवीए नेरइया किं असशीहितो उसजति जाब मच्छपणुए हितो उपवज्जति गोयमा! नो अप्सनीहितो उपजतिसरी लिहितो उज्जति जाब मच्छमणुरहितो उववज्जति' वहीं तक के बरवालों में सिंह मरकर नारक रूप से उत्पन्न होता है 'उरगो पुण पंचम जति' कप पानी पृथिवी तरु के हीन नरक्षावासों में नारक रूप से उत्पन होता है ॥१॥ ___ 'छडिंच इत्थियाओ' छठी पृथिवी तक ही स्त्री नारक रूप से उत्पन्न होती है और बच्छा मणुमा य नुतमि जति' महा शुभ अध्यवसाय वाले मत्स्य और मनुष्य सातवी पृथवी तक जाते है । यह गाथा का अर्थ हुभा ॥१॥ इली कथन के अनुसार 'जाव' यावत्पद से छठी पृथिवी तक रत्नप्रभा पृथिवी की तरह आलाप बना लेना चाहिये । अधासप्तमी के विषय में सूत्रकार स्वयं आगे रहेंगे। आलापक इस प्रकार 'सकरप्प भाएण भंते! पुढवीए णे या किं अक्षणी हिंता उववज्जंति, जाव मच्छमनुएहितो उवषति' हे बदन्त ! शर्कराममा पृथिवी के नरका चउत्थी' ५४मा नामनी रे याधी की छे त्या सुधीना १ न२बासमा सिंह भरीने ना२७५थी उत्पन्न थाय छे. 'उरूगा पुण पंचमि जति' स५ પાંચમી પૃથ્વી સુધીના નરકાવાસમાં જ નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. જે ૧ | 'छट्टि'च इत्थियाओ' छी पृथ्वी सुधी १ स्त्री ना२४५थी सत्पन्न याय छ भने 'मच्छा मणुया य सत्तमि जति' मा पशुम मध्यवसाय पण મસ્યા અને મનુષ્ય સાતમી પૃથ્વી સુધી જાય છે. આ ગાથાનો અર્થ થયે ( ૧ છે આ કથન પ્રમાણે જ “જ્ઞાવ” યાવદથી છઠી પૃથ્વી સુધી રત્નપ્રભા પૃથ્વીની જેમ આલાપકો સમજી લેવા. અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના સંબંધમાં સૂત્રકાર સ્વયં હવે પછી કથન કરશે. તેના આલાપને પ્રકાર આ પ્રમાણે છે 'सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए णेरइया कि असण्णीहि तो उसवजति जाव मच्छ जी० २८
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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