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________________ जीवाभिगमन खल्ल शब्दोऽवधारणे, तथा च-यदि असंज्ञिनो नरले गच्छन्ति तदा मयमामेव नरकपृथिवीं गच्छन्ति न तु परत इति न तु ते संमृच्छिम पञ्चेन्द्रिया एत्र प्रथमा. मिति गर्भनसरीसृपादीनामपि उत्तर पटकपृथिवीगामिनामपि तत्र नमनादितिएवमुत्तर पृथिव्यादावपि अवधारणं भावनीयमिति । 'दोच्वं च सरीसिवा' द्वितीयामेव शर्करापभाक्ष्यां पृथिवी यावगच्छन्ति सरीसपा गोधानकुललपादयो गर्भयुक्रान्ता न परत इति । 'तत्यपक्खी' तृतीयां वालुकाप्रमारटयां पृथिवीं यावत् प्रथमपृथिवीत आरतृतीय पृथिदीपर्यन्त पक्षिगो धादयो गच्छन्तीति । 'सीहा जति चाथि चतुर्थी मे पृथिती यावत् पङ्कन पारपां पृथिरी यावत् सिंहा बालों में वे उत्पन्न नहीं होते हैं ऐसा अवधारण यहां पाधा में रहे हुए खलु पद से किया गया है इससे यह निपेत्र नहीं समझना चाहिये कि सरीसृप आदि आगे की छहों पृधिधियों में जाने वाले प्रथम पृथिवी के नरकावासों में उत्पन्न नहीं होते है ये मुरीप आदि यहां पर भी उत्पन्न हो सकते हैं-- यही विषय इस गाथा द्वारालमझाया गया है-'दोच्चं च सरीसिवा' सरीसृप-गोधा नकुल आदि गर्भज पञ्चेन्द्रिय जीव शराप्रभा पृधिवी तक के ही लरकावासों में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं। इससे आगे की पृथिवियों के नरकाघासों में ये नारक रूप से उत्पन्न नहीं होते है। 'तय पक्खी पालुझावमा पृथिवी तक केही नरवालों में पक्षी गृद्ध आदि पञ्चन्द्रिय गर्भज पक्षि नारक रूप से उत्पन्न होते हैं इससे आगे की पृथिवियों के नरक्षावालों में ये नारक रूप से उत्पन्न नहीं होते। 'सीदा जति च उत्थी' चौथी जो पडुप्रभा नाम की पृथिवी है વાસમાં તેઓ ઉત્પન્ન થતા નથી આ પ્રમાણેનો અર્થ આ ગાળામાં આપેલ 'खलु' ५४थी ४२पामा मात छे. तेथी सेवा निषेध सभा नहीं है सशसु५ વિગેરે પછીની છએ પૃથ્વીમાં જવાવાળા પહેલી પૃથ્વીના નરકાવાસોમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. આ સરીસૃપ વિગેરે તેમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. એજ વિષય આ નીચે આપવામાં આવેલ ગાથા દ્વારા સમજાવવામાં આવેલ છે. 'दोच्च च सरीसिवा' सरीस५ था, नाणीया वि३ । पायद्रियावाणा જી શર્કરા પ્રભા પૃથ્વી સુધીના નરકવામાં જ નારકપણાથી ઉત્તપન્ન થાય છે. તે પછીની પૃથ્વીના નારકાવામાં તેઓ નારકપણાથી ઉત્પન્ન થતા નથી. 'तईय पक्खी' पाला पृथ्वी सुधीना न२४पासोमा ५ पक्षी जाय विरे પાંચ ઈદ્રિયવાળા ગર્ભજ પક્ષી નારકાપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે પછીની पृथ्वीयाना ना२पासमा तमा ना२४ाथी उत्पन्न यता नथी. 'सीहा जंति
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
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