SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवाभिगमसूत्रे १९२ " कुणावण दुभिगंध' मृतकुथितदिनष्ट कुणिण्व्यापन्न दुरभिगन्धः मृतः सन् कुथित पूतिभावं समाप्तः एतावच्छ्नावस्थामात्र गर्यो ऽपि भवति न च स तथा दुर्गन्ध तत्राह - 'चिर' इत्यादि, चिरग्निष्टः- चिरकालच्तस्यां माप्यस्फुटित इत्यर्थः सोऽपि तथा दुरभिगन्ध न यति तत्राह - 'कुणिय' इत्यादि, व्यापन्नं विशीर्णीभूतं शटितं कुणिमंगांसं यस्य स मृत कुथिचिरविनष्ट कुणिमव्यापन्नः । अतएव दुरभिगन्धः दुरभिः - सर्वेषामाभिमुख्येन दुष्टो गन्धो यस्यासौ दुरभि गन्धः । ' असुहविलीण विगय बोभस्थ हरिसणिज्जे' अशुचि विलीन विगतवीभत्सा दर्शनीयः, अशुचिरपवित्रषः विलीनो मनसः कलिमल परिणाम हेतु विगतं विनष्टं यदभिमुखतया प्राणिनां गतं गमनं यस्मिन् स तथा तथा वीभत्सया निन्दया दर्शनीयो द्रष्टु योग्य इति बीभत्ला दर्शनीयः ततो विशेषण समासः, अशुचिविलीन विगतबीभत्सा दर्शनीय: । 'किमिनाला उलसंसत्ते' कृमिजाळा कुळसंसक्तः परस्परसबद्धतया संरुक्तः सन् कृमिजाला कुलोजात इति कृमिजाला कुणिम यावण्ण दुस गंधे' मानो धीरे २, बृज - फूलकर सड़ गये हों, और जिनमें से दुर्गन्ध आरही हो और इसी कारण जो । 'असुह विलीण विजयी भन्दरिसणिज्जे' अशुद्धि छूने योग्य न रहे हों मन में अत्यन्त ग्लानि के उत्पादक बने रहे हों, जिनके सन्मुख जाना भी कोई नहीं चाहता हो, अथवा जिनके पास से होकर भी कोई निल ना नहीं चाहना हो, जो बीभत्सा से ग्लानि से देखे जाने के योग्य बन रहे हों 'किमिजालाउलसंतत्ते' एवं जिस में कीडों का समूह बिलबिला रहा हो इस पर गौतम ! पूछते हैं-'भवे एवारूवे सिया' तो क्या है भदन्त ! जैसी दुर्गन्ध इन अहिमृतक आदि के सडेगले कलेवर की होती है तो क्या ऐसी ही दुर्गन्ध उन नरकों में होती है ? होय छे, भने याञधा भरेसाना शरीश 'मय कुहियचिरविणट्ट कुट्टिमवावण्ण दुभिग घे' माना है धीरे धीरे सीने सडी गयेसा होय, सडीने झटी गया होय, मने नेमांथी हुर्गन्ध भावती होय भने मेन अरथी ने 'असुइ विलीण विगय बीभत्थदरिस जिज्जे अशुन्थि - अपवित्र स्पर्श वा योग्य न होय, તેમજ મનમાં અત્યંત ગ્લાની ઉત્પન્ન કરાવનારા બન્યા હૈાય, અને જેની પાંસે જવા પણ કાઈ ઈચ્છતા ન હૈાય અથવા જેની પાંસે થઇને કેાઈ નીકળવા પણુ ઇચ્છતા ન હેાય, જેએ ગ્લ નીથી દેખવાને ચેાગ્ય બન્યા હોય ક્રિમિનારાઇસ सत्ते' भने ঈमां डीडामानो समुहय मरणही रहयो होय 'भवे एयारूवे सिया' ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે કે જે પ્રમાણેની દુન્ય આ મરેલા સર્પ વિગેરેના
SR No.010389
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages929
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size61 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy