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________________ १५६ *जिनवाणी संग्रह * दीनों। तबई तू तिनहीं रस भीनो ॥ तनक विवेक हृदय ना धरना। एतेपर एता क्या करना ॥ १७ ॥ पर संगति कितना दुख पावे। तब भी तोको लाज न आवे ।। वासन संग नीर ज्यों जरना। एतेपर एता क्या करना ॥ १८॥ देव धर्म गुरु शास्त्र न जाने । स्वपर विवेक न उरमें आने ॥ क्यों होसी भवसागर त. रना । एतेपर एता क्या करना ॥ १६ ॥ पांचों इन्द्रिय अति वट. मारे । परम धर्म धन मूलत हारे ॥ सांय पिवहि एता दुख भरना। एसेपर एता क्या करना ॥ २०॥ सिद्ध समान न जाने आपयासे तोहि लगत है पाप ॥ चोल देख घट पटहि बघरना । एतेपर एता क्या करना ॥२१॥ श्रीजिन बचन अमिय रस वानी । पीवे नाहिं मूढ़ अज्ञानो ॥ जासे होय जन्म मृत्यु हरना। एते पर एता क्या करना ॥२२॥ जो चेते तो है यह दाव । नातर बैठा मङ्गल गाव । फिर यह नर भव वृक्ष न फरना । एते पर एता क्या करना ॥२३॥ भैया विनवे बारम्बार । चेतन चेत भलो अवतार । हो दूलह शिव रानी वरना । एते पर एता क्या करना ॥२४॥ __दोहा--ज्ञान मई दर्शन मई वारित्र मई सुभाय । सो परमात्म ध्याइये यही मोक्ष सुखदाय ॥ २५ ॥ सत्रह सौ इकतालीसके मार्ग शोर्ष निस्पक्ष । तिथि शङ्कर गण लीजिये श्रोरविवार प्रत्यक्ष ॥२६॥ ६८ धर्म पचीसी । दोहा-भव्य कमल रवि सिद्ध जिन, धर्म धुरन्धर धोर । नमत सुरेन्द्र जग तम हरण; नमो त्रिविध गुरवोर ॥ चौपाई-मिथ्या विषयन में रति जीव । ताते जगमें भ्रमें
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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