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________________ * उपदेश परोसी प्रारम्भ * १५५ अरुवाह। वनस्वतीमें बसे शुभाय ॥ ऐसी गतिमें बहु दुख भरना। पतेपर एता क्या करना ॥५॥केतिक काल यहां ही गयो। तहसे कड़ विकलत्रय भयो । ताको दुख कुछ जाय न वरना। एतेपर एता क्या करना ॥६॥ पशु पक्षीकी काया पाई चेतन तहां रहो लपटाई ॥ बिन विवेक कहो क्यों तरना। एते पर एता क्या करना ॥ ७॥ इम तिर्यंच महा दुख सहे । सो काहूं ते जाय न कहे। पाप कमसे इस गति परना । एते पर एता क्या करना ।। ८॥ बहुरो पड़ो नकके माहीं। सो दुख कैसे वरण जाहीं । भू दुर्गन्ध नाक जहां सरना । एतेपर एता क्या करना अग्नि समान तप्त भू कहीं। कितहू शीत महा बन रही ॥ शूली सेज क्षणक ना डरना।। एते पर एता क्या करना ॥१०॥ परम अधर्मों असुर कुमार। छेदन भेदन करे अपार ॥ तिनके वशले नाहिं उबरना । एतेपर एता क्या करना ॥ ११ ॥ रंचक सुख जहं जियको नाहीं। बसते यहां नके गति माहीं ॥ देखत दुष्ट महा भय भरना। एतेपर एता क्या करना ॥ १२ ॥ पुण्य योग भयो सुर अवतार । फिरत २ इस जगति मझार ॥ आवत काल देख थर हरना। एतेपर एता क्या करना ॥ १३॥ सुर मन्दिर अरु मुख संयोग । निशि दिन मन वांछित वर भोग ॥ क्षण इक माहि तहांसे टरना। एतेपर एता क्या करना ॥ १४॥ बहुत जन्म नक पुण्य कमाय । तब कहुं लही मनुज पर्याय ॥ तामें लयो जरादिक मरना । एतेपर एता क्या करना ॥१५॥ धन योवन सय ही ठकुराई । कर्म योगसे नव निधि पाई । सो स्वमान्तर कैसा झरना । एतेपर एता क्या करना ॥ १६ ॥ इन विषयनके तो दुख
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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