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________________ * जिनवाणी संग्रह * निर्मलं निर्मलीकरणं पवित्रं पापनाशनम् | जिनगन्धोदकं वंदे अष्टकर्मविनाशकम् ॥ १ ॥ यदि आशिका लेनी हो, तो यह दोहा पढ़कर लेना चाहिये । दोहा - श्रीजिनवरकी आशिका, लीजे शीश चढ़ाय । भवभवके पातक करें, दुःख दूर हो जाय ॥ १ ॥" तत्पश्चात् नीचे लिखे दो अथवा एक कवित्त पढ़कर शास्त्रजीको साष्टांग नमस्कार करके शास्त्रजीको सुनना चाहिये । अथवा थोड़ी बहुत किसी भी शास्त्र को स्वाध्याय करना चाहिये । २८ जिनवाणी माताकी स्तुति । वीरहिमाचल निकसो. गुरुगौतमके मुख कुंड डरी है। मोह महाचल भेद चलो, जगकी जड़ता तप दूर करी है ॥ ज्ञानपयोनिधिमाहिं रली बहुभङ्ग तरङ्गनिसों उछरा है । या शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुलीकर शोस घरी है ॥ १ ॥ या जगमंदिरमें अनिवार अज्ञान अंधर छ्यो अति भारी । श्रीजिनकी धुनि दीपशिखासम, जो नहिं होत प्रकाशनहारी ॥ तो किस भांति पदारथपांति, वहां लहते रहते अविचारी । या विध संत कहै धनि है धनि, है जिन वेन बड़े उपकारो || २ || ६२ रात्रिको भी इसी प्रकार दर्शन करके तत्पश्चात् दीप धूप से नीचे लिखी अथवा जिसपर रुवि हो वह आरती करना चाहिये ॥ २६ पंचपरमेष्टीकी आरती । मनवचतनकर शुद्ध पंचपद, पूजो भविजन सुखदाई । सबजन मिलकर दीप धूप ले, करहुं आरती गुणगाई ॥ टंक ॥ प्रथमहिं
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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