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________________ * बुधजनकृत स्तुति . ६१ त्रिभुवन तिहुंकाल मंझार कोय। नहिं तुम बिन निजसुख दाय होय ॥ मो उर यह निश्चय भयो आज। दुखजलधि उतारन तुम जिहाज ।। १६॥ दोहा-तुमगुणगणमणि गणपती, गणत न पाहि पार । ____ 'दौल' स्वल्पमति किम कहै, नमूत्रियोग संभार ।। २७ अथ बुधजनकृत स्तुति प्रभु पतितपावन मैं अपावन, वरन आयो शरणनी। यो विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरनजी ॥ तुम ना पिछान्या आन मान्या, देव विविध प्रकारजी । या बुद्धिसेती निज न जाण्या, भ्रम गिण्या हितकारजी ॥ १॥ भवविकट वनमें करम बैरी, ज्ञानधन मेरो हसो । तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्टगति धरनो फिसो ॥ धन घड़ी यो धन दिवस योही, धन जनम मेरो भयो । अव भाग मेरो उदय आयो, दरश प्रभुको लख लयो ॥ २॥ छवि वीतरागी नगनमुद्रा, दृष्टि नासापै धरै। वसुप्रातहार्य अनन्त गुणयुत, कोटि रविछविको हरें ॥ मिट गयो तिमर मिथ्यात मेरो उदय रवि आतम भयो । मो उर हरख ऐसो भयो, मनु र चिन्तामणि लयो । ३॥ मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक, बीनऊ नव चरनजी। सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनो नारन तरनजी ॥ जाचू नहीं सुरवास पुनि, नरराज परिजन साथजी । 'वुध' जाचहूं तुव भक्ति भवभव, दीजिये शिवनाथजी ॥४॥ इस प्रकार एक या दोनों स्तुति पढ़कर पुनः साष्टांग नमस्कार करना चाहिये । नपश्चात् नीचे लिखा श्लोक पढ़कर गंधो. दक मस्तकपर तथा हृदयादि उत्तम अंगोंमें लगाना चाहिये ।
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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