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________________ ३६२ जिनवाणी संग्रह | ओं ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्ब साधुगुरुभ्यो चन्दन नि० freer कमोद सुवास उज्जल, सुगुरुपगतर धरत हैं । गुनार औगुनहार स्वामी, वंदना हम करते हैं ॥ भव भो० ॥३॥ ओं ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्व साधुगुरुभ्यो ऽक्षय पदप्राप्तये अक्षतान् शुभफ लराशप्रकाश परिमल, सुगुरुपायनि परत हों । निरबार मोर उपाधि स्वामी, शील दृढ़ उर धरत हों । भव०॥४॥ ओंह्रीं आचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्य: पुष्पं । पकवान मिट सलोन सुंदर, सुगुरु पांयन प्रोतिसौं 1 कर धारोग विनाश स्वामी, सुथिर कीजे रीतिसौं ॥ भव० ॥५॥ ओं ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्व साधुगुरुभ्यः नैवेद्य' । दीपक उदोत सजोत जगमग, सुगुरुपद पूजों सदा । तमनाश ज्ञानउजास स्वामी मोहि मोह न हो कदा | भ० ॥ ६ ॥ ओं ह्रीं आचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्यो दीपं । बहु अगर आदि सुगंध खेऊ सुगुण पद पद्महि खरे । दुख पुंज काट जलाय स्वामी गुण अछय चितमें धरे ॥ भव०७॥ ओं ह्रीं आचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं नि० भर थार पूर बदाम बहुविधि, सुगुरु क्रम आगे घरों 1 मंगल महाफल करो स्वामी, जोर कर बिनती करों ॥ भव० ॥८॥ ॐ ह्रीं आचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल नि० जल गंध अक्षत फूल नेवज, दीप धूप फलावली । 'धान' सुगुरुपद देहु स्वामीं, हमहिं तार उतावली ॥ भव० ॥ ॥ मह्रीं आचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्यो ऽनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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