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________________ गुरुपूजा। लाख सहस छप्पन हैं। सहित पंचपद मिथ्या हन हैं ॥ ७॥ इक सो बारह कोड़ि वखानो। लाख तिरासो ऊपर जानो। ठावन सहस पंच अधिकाने। द्वादश अंग सर्व पद माने ॥ ८ ॥ कोड़ि इकावन आठहि लालं। सहस चुरासी छहसौ भावं साढ इकीस शिलोक बताये । एक एक पदके ये गाये ॥६॥ घत्ता--जा बानीके ज्ञानमें, सूझ लोक अलोक । 'द्यानत' जग जयवंत हो, सदा देत हों धोक इत्याशीर्वाद: ॥ (७४) गुरुपूजा। दोहा-चढंगति दुखसागरविणे, तारनतरनजिहाज । रतनत्रयनिधि नगन तन, धन्य महा मुनिराज ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्योपाध्यायसर्बसाधुगुरुसमूह ! अत्रावतराव. तर सवौषट । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् । शुचि नोर निरमल छोरदधिसम, स गुरु चरन चढ़ाइया । तिहुधार तिगतिटार स्वामो, अति उछाह बढ़ाइया ॥ भवभोगतनवैराग्य धार, निहार शिव तप तपत हैं। तिहु जगतनाथ अराध साधु सु पूज नित गुण जपत है ॥ १ ॥ ___ओं ह्रीं श्रीआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो जलनि. करपूर वदन सलिलसौं घसि सु गुरुपद पूजा करौं । सब पाप ताप मिटाय स्वामी, धरम शीतल बिस्तरौं । भव भोगतन वैराग धार निहार, शिवतप तपत हैं। सिजगतनाथ अराध साधुसु, पूज नितगुन जपत हैं ॥२॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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