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________________ ३२४ जिनवाणी संग्रह। क्षुधा महादवज्वाल, तासुको मेघ लहे हो। नेवज बघत मिष्टसों (हो), पूजों भूख घिडार । सीम० ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थ करेभ्यो झुधारोगविनाशनायनैवेद्य ॥ उद्यम होन न देत, सबै जगमाहिं भलो हैं। मोह महातम घोर, नाश परकाश कसो है ॥ पूजों दीप प्रकाशसों (हो) ज्ञानज्योतिकरतार । सीमं० ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं विधमानविंशतितीर्थ करेभ्योः मोहान्धकारविनाशनायनैवेद्य कर्म आठ सब काठ,-भार विस्तार निहारा। ध्यान अगनि कर प्रगट, सरब कीनों निरवारा ॥ धूप अनुपम खेबतें (हो), दुःख जले निरधार । सीमं ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय, धूपंनि०॥ मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे हैं। सबको छिनमें जीत, जैनके मेर खरे हैं। फल अति उत्तमसों जजों (हो), वांछित फल दातार सी०॥८॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थ करेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फल। जल फल आठों दर्ष, अरघ कर प्रीत धरी हैं।। गणधर इन्द्रनिहतै, थुति पूरी न करी हैं। 'धानत' सेवक जानके (हो), जगते लेहु निकार । सीम०॥८॥ ॐ ह्रीं विद्यमानबिंशतितीर्थ करेभ्योऽनर्ध पदप्राप्तये अर्धनि० अथ जयमाला भारतो। सोरठा-ज्ञानसुधाकर चन्द, भविकखेतहित मेघ हो । भ्रमतमभान अमन्द, तिथं कर बीसों नमों ॥ १ ॥ सीमन्धर सीमन्धर स्वामी । जुगमन्धर जुगमंधर नामी।
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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