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________________ जिनवाणी संग्रह। , मुद्राकङ्कणशेखरान्यपि तथा जैनाभिषकोत्सवे ॥ (इस श्लोकको पढ़कर अभिषेक करनेवालोंको यज्ञोपवीत तथा नाना प्रकारके सुन्दर आभूषण धारण करना चाहिये।) सौगन्धसगतमधुव्रतक्षकृतेन, सौवर्ण्यमानमिव गंधमनिंद्यमादौ। आरोपयामि बिबुधेश्वरवृन्दवन्द्य पादारविन्दमभिवन्ध जिनोत्तमानां इसे पढ़कर अभिषेक करनेवालोंको अङ्गमें चन्दनके नवतिलक करना चाहिये। ये सन्ति केचिदिह दिव्यकुलप्रसूता नागाः प्रभूतबलदपयुता विबोधाः। संरक्षणार्थममृतेन शुभेन तेषां प्रक्षालयामि पुरत: स्नपनस्य भूमिम् ॥ । इसको पढ़कर अभिषकके लिये भूमिका प्रक्षालन करे ) क्षीरार्णवस्य पयसां शुचिभि: प्रवाहै:, प्रक्षालितं सुखरैयदनेकवारम् । अत्युद्यमुद्यतमहं जिनपादपीठं प्रक्षालयामि भवसंभव तापहारि ॥ (जिस सिंहासन पर विराजमान करके अभिषेक करना हो उसका प्रज्ञालन को श्रीशारदासुमुखनिर्गतवाजवणं श्रीमङ्गलोकवरसर्बजनस्य नित्यं । श्रीमत्स्वयं क्षयतयस्य विनाशविघ्न श्रीकारवर्ण लिखितं जिनभद्रपीठे। (इस श्लोकको पढ़कर पीठपर श्रीकार लिखना चाहिये ।) इन्द्राग्निदंडधरने तपाशपाणि वायूत्तरेशशशिमौलिफणीन्द्र चन्द्राः । आगत्य यूयमिहसानुचरा: सचिन्हा: स्वं स्वं प्रतीच्छत बलि जिनपाभिषेके॥ (मीचे लिखे मंत्रोंको पढ़कर क्रमसे दश दिकपालोंके लि' अर्घ चढ़ानो) १ ॐ माँ को ही इन्द्र मागच्छ आगच्छ इन्द्राय स्वाहा।
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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