SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * अग्हंतपासाकेबली * २१६ more हंरर । हरर अक्षर भाषत सांचा। तो मनमें उद्वेग उमाचा । वित्त कछू अब छोजइ भाई। पीछे होय सुखी अधिकाई ॥१०॥ संपत संतत मित्र पियारे । होहि सदा तोहि मंगलकारे ॥ अर्थ बढ़ घरमें सुखदाई। कीरति देशदिशंतर जाई ॥११०॥ श्रीजिन धर्मप्रभाव विचारो। है सब कारज सिद्ध तुमारो॥ यामें संशय रच न मानो। सेवहु श्रीजिनराज सयानो ॥ १११ ॥ हरहं । मध्यरकार जहां छवि देई । हं जुग आदिरु अन्त परेई ॥ उत्तम लाभ लसै फल ताको । पुत्र विवाह भविष्यति जाको ॥ ११२ ॥ नारि मिलै घर संपत आवै । बैर मिट हित प्राति जना. वै॥ संगर बाद विवादमझारी। होय विजय तुव आनंदकारी ॥ ११३ ॥ दोखत है शुभभाग तिहारो । यामें संशय रश्चन धारो॥ श्री जिनचन्दपदाम्बुज ध्यावो । ताकरि पूरण पुन्य कमावो ॥११४॥ हरत । हरत वन वखानत ऐसे । कारज सिद्ध लसै सब जैसे । उद्यममें लछमी चिरलाभं जुद्धरुजूत विजै तुम साजं ॥११५॥ लाभ लसैं सब ठौर तुमारे । हानि हमें नहिं दीखत प्यारे । किंचित सोच बसै मनमाहीं। तातु हमें कछु संशय नाहीं ॥११६॥॥ शोघ्र मिटे वह शोच तुमारा। घर मङ्गल मंजुल सारा। श्रोजिनधर्म अराधहु जाई । संजम दान करो सुखदाई ॥११७॥ हेहंभ । हं जुग अन्त अकार उचारौ । कारज सिद्ध समस्त तुमारो॥ धामविर्षे धन है अधिकाई। पुत्र सुपौत्र बढ़े सुखदाई ॥१६८॥ बांधवमित्रसमागम सूचै । जो परदेश विर्षे अविष (१)। संवत एकमंझार पियारे। है लछिलाभ तुमें अधिकारे ॥११॥ इष्ट
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy