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________________ २१८ * जिनवाणी संग्रह * हंपर । हंअर भाषत है सुख सारा । होय मनोरथ लिद्ध तुमारा। अर्थ तिया मुदमंगलताई। आनंदसंजुन बांधत्र भाई। ॥१८॥ उद्यममें धन प्रापति जानो। देशविदेश जहां मनमानो। रोगोको रुज जाय नलाई। बांधवमित्र मिलें सब आई ॥६६ | देव अराधह भाव लगाई । सो मनवांछित सिद्ध कराई । ज्यों विनम्न पादपै जानो । त्यों विनधर्म न आनंद पानो ॥१०॥ हंअहं । हं अरुहंमधि जत्र अकारं। तो सुनि पूछनहार विवारं । कोमल वित्त तुमार दिखाई । शत्रु सुमित्र गिनो समताई ॥ १०१॥ नासहित धन आप गंवायो। कालसुभाव नहीं लख पायो। है कलिकालकराल पियारे । तें अति साधु सुभाव सुधारे ॥१०२॥ जो कछु पूर्व भयौ धन हान । सो सब तोहि मिले सुखदान है तुमको नित प्रापति आगे। निश्चय जान अर्थ अनुरागे ॥१०॥ हं अत। हं अत आय जनावत ताते। मंगल मंजु समाजसुबातें। पुत्र सुमित्र समागम होई । देशाराधन लाभ बहोई ॥१०॥ धाको चिन्ता करत हो, शीघ्रहि पैहो सोय। द्रा पुत्र वनिता वलन, सकल प्रापता होय ॥ १० ॥ क्ल शव्याधि अब मिट गई, देव धरम परसाद । सुफल काज नित जानि जिय, भजहु जिनेसुरपाद ॥ १०६ ॥ हरम। हरअ आय दिखावत ऐलो। वितित काज सरै तुव तैलो ॥धान्यधनादिक लाभ दिखाई । कोरत देश दिर्शनर जाई । ॥ १० ॥ भूर कर सन्मान तुम्हारा । देश धराधा देइ उदारा ॥ प्रीति कर तुमसों सब कोई । यामह संशय रंच न होई ॥ १०८ ॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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