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________________ ८६ ] [ जिनवरस्य नयचक्रम् ध्यान रहे एकदेशशुद्धनिश्चयनय का प्रयोग निर्मल परन्तु अपूर्ण पर्याय के साथ अभेदता दिखाने में ही होता है। अपूर्णता की अपेक्षा इसे 'एकदेश', निर्मलता- शुद्धता की अपेक्षा 'शुद्ध' एवं अपनी पर्याय होने से 'निश्चय' कहा जाता है । इसप्रकार एकदेशशुद्धनिश्चयनय में अपनी निर्मल लेकिन अपूर्ण पर्याय के साथ द्रव्य की तन्मयता बताना इष्ट होता है । पर्याय की निर्मलता इसे अशुद्धनिश्चयनय से पृथक् रखती है, एवं अपूर्णता शुद्धनिश्चयनय से पृथक् रखती है। (७) प्रश्न :- निश्चयनय के चारों भेद किस-किस गुणस्थान में पाये जाते है ? उत्तर:- (अ) परमपारिणामिकभावरूप सामान्य-अंश का ग्राही होने से परमशुद्धनिश्चयनय तो मुक्त और संसारी समस्त जीवों के पाया जाता है। अतः वह तो चौदहगुणस्थानों और गुणस्थानातीत सिद्धों में भी पाया जाता है। इस नय की अपेक्षा संसारी और सिद्ध - ऐसे भेद ही संभव नहीं हैं। 'सर्व जीव हैं सिद्धसम' या 'मम स्वरूप है सिद्ध समान' या 'सिद्ध समान सदा पद मेरो' आदि कथन इसी नय के तो है। 'वर्णादि से लेकर गुणस्थानपर्यन्त के सभी भाव जीव के नहीं हैं - यह कथन भी इसी नय की अपेक्षा से किया जाता है। 'वर्णाद्या वा राग-मोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुसः' जो निगोद में सो ही मुझमें, सो ही मोख मझार । निश्चय भेद कछु भी नाहीं, भेद गिन संसार ॥' -ये सब कथन इसी नय के है। एक यही निश्चयनय है, जो द्रव्यस्वभाव को ग्रहण करता है; शेष नय तो पर्यायस्वभाव को ग्रहण करनेवाले हैं। यही कारण है कि वे इसकी अपेक्षा व्यवहार हो जाते हैं, निषेध्य हो जाते हैं। यही वह नय है, जिसे पंचाध्यायीकार ने नयाधिपति कहा है और एकमात्र इसे ही निश्चयनय स्वीकार किया है । (ब) शुद्धनिश्चयनय पूर्णशुद्ध भावों अर्थात् क्षायिकभावरूप पर्यायों को द्रव्य में अभेदरूप से (ग्रहरणकर) कथन करनेवाला होने से क्षायिकभाववालों में ही पाया जाता है। क्षायिकसम्यग्दर्शन की अपेक्षा यह चौथे गुणस्थान में भी पाया जाता है और इसी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि को दृष्टिमुक्त कहा जाता है । यह भी कहा जाता है कि दृष्टि-अपेक्षा वह सिद्ध ही हो गया।
SR No.010384
Book TitleJinavarasya Nayachakram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1982
Total Pages191
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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